बलि-बलि जाऊँ
कहती क्या,जाने ऋतु बसंत
मन का बसंत सूना-सूना
है पास नहीं मनमीत कोई,
यह दर्द बढ़े निशिदिन दूना।
हो गया प्रकृति से हृदय दूर
फिर गीत प्यार के गाये क्या,
मन को न आजकल भाये कुछ,
दिल अपना किसी को भाये क्या?
मन में हैं भरे उपदेश कई
पर होगा न उनसे काम कोई।
मन चाहे आजकल जाने क्यों
हो प्यार में निज बदनाम कोई।
है प्रीति हृदय में भरी बहुत
पर उसे कहाँ मैं बरसाऊँ,
है मिली न मूरत इक ऐसी,
जिस पर कि ‘सरस’ बलि-बलि जाऊँ!
*सतीश तिवारी ‘सरस’, नरसिंहपुर