बलिहारी
मैंने देखा इक सीधी बकरी,
थी मंदिर चढ़ती बलिहारी।
मालाओं से खूब सजी वो,
ना समझी नर की गद्दारी।
ढोल नगाड़े -अक्षत बीच,
सामने थी भवानी न्यारी।
क्या कसूर था निरीह का,
गर्दन कटती झट प्यारी।
माँ तो ममता की है मूरत,
है समझे सबकी लाचारी।
सम्मुख शोणित छर-2बहता,
भूल गयी क्या करुणा सारी।
बलिदानों की बड़ी जरूरत,
धड़ काटो माँ लेकर आरी।
खूनों से जो मुँह सने हों,
उनके सर से भर दो घारी।
राजनीति को बुद्धि दो माँ,
जनहित में फतवा हो जारी।
जहाँ चरण पादुका वर्जित,
पशु बलि की न आवे बारी।
अपने लाल की रक्षा खातिर,
पशु बलि दे करते हुशियारी।
मासूमों का गर्दन काटना,
भैया ये कैसी है बलिहारी !
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अशोक शर्मा,कुशीनगर,उ.प्र.
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