बरसों से जिन्हें अपना माना
बरसों से जिन्हें अपना माना
अब कैसे उन्हें समझूं बेगाना
मैं अपनी अना में दूर हो गई
दिल को नागवार था दूर जाना
क़ाफ़िले में चल के मुमकिन नहीं
अपनी अलग पहचान बनाना
मुझे मग़रूर किया तिरे ग़ुरूर ने
मुझे आता था रिश्तों में झुक जाना
मुआफ़ करें मिन्नतें कर ना सकूंगी
अब बेहतर है तअल्लुक़ टूट जाना
त्रिशिका श्रीवास्तव धरा
कानपुर (उत्तर प्रदेश)