“बरसात”
तब हम परेशां थे इस बारिश से..
अब तो रोना है साहब रोना ……
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बचपन में जब बारिश का आना
कर देता हम बच्चों का हँसाना
गुल्दस्ते वो गुलफ़ारियां वो मस्ती !
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खेत में भी किसान का ठहासा था
काम करता भीगे-भीगे
उसे नहीं खबर अपनी मगर
अंदर ही अंदर वो खुश जरुर था !
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वो धान की रोपाई
वो लेपा वो पोथी
बारिश का पानी
पानी का बहाव !
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आज बदल गया वक्त
किसान तो बस निशां रह गया
जीते जी जी न सका !
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तब हम परेशां थे इस बारिश से..
अब तो रोना है साहब रोना ……
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कभी हथेली माथे पर
गुहार कभी तो कभी
फूटकर आँशुओ की फुहार भी !
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वो दौर अच्छा था धूप थी
बरसात भी मगर सच्ची थी
आज उड़ता आता है उड़ता ही जाता है !
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शहर भी छोटा हो या बडा कोई
बरसात अगर हो भी गई
इक तरफ़ बेहाल हुआ
इक तरफ़ तो सूखा ही रहा !
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कुदरत करिश्मा है या
हमारा ही कोई दोष
कुदरत तो कुदरत ही हुआ
हम भी सब निर्दोष !
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तब हम परेशां थे इस बारिश से..
अब तो रोना है साहब रोना ……
——————————-बृज