बरसात और बूढ़ी आँख
झम-झम-झम बादल झरे
झर-झर बूढ़ी आँख
दोनों में प्रतिद्वन्दिता
चली समूची रात।
वायु की गति देखकर
भटके दर-दर सोच
साथ कहीं न ले उड़े
छप्पर को भी नोच
पति पहले ही ले गई
बैरिन कुक्षि की आग
तु भी करने आ गई
मुझ दुखिया से घात?
सघन तरल अँधियार में
बादल ठोकें ताल
हर गर्जन के साथ में
दरके धैर्य, दीवाल
कोने-कोने भागती
लेकर टुटही खाट
बूँदों की तलवार से
फिरे बचाती गात।
झोपड़ से अम्बर तलक
दौड़े दामिनि- चाप
सुन-सुन तन गठरी बने
दादुर,झींगुर थाप
अरुणोदय तक ढह गई
उत्तर की परसेल्ह
पिछवाड़े जा कर मिली
पौंपुज्जही परात।
( परसेल्ह = दीवार के चारों ओर पाटी गई मिट्टी जो सामान्यतः धरातल से तनिक ऊँची होती है।
पौंपुज्जही= कन्यादान के समय वर-कन्या को, माता-पिता(सगे-सम्बंधियों) द्वारा दान किया गया सामान।)
✍ रोहिणी नन्दन मिश्र, इटियाथोक
गोण्डा- उत्तर प्रदेश