बरसात आंसुओं की छलक छलक जाए
धरती मां तेरी पीड़ा नैनो में ना समाए।
बरसात आंसुओं की छलक छलक जाए।
नादान हाय मानव करता है तेरा दोहन।
कैसे यों नौंच डाले इसने मां तेरे ये आभूषण।
दिन रात ए मनुज क्यों करता है तू प्रदूषण।
बेहाल हो धरा जब करती है करुण क्रंदन।
तेरी पुकार सुनकर मां हृदय रो रो जाए।
बरसात आंसुओं की छलक छलक जाए।
निज स्वार्थ हेतु मानव! वृक्षों को काटता है।
निर्दोष परिंदों के तू ! घर क्यों उजाड़ता है।
अनमोल सांसें अपनी, खतरे में डालता है।
तू! क्यों यूं अपनी मौत का सामान बांधता है।
तेरी इस दुर्गति पर अब लाज मुझको आए।
बरसात आंसुओं की छलक छलक जाए।
विकसित हुआ वतन है, संस्कृति का पतन है।
धुंआ उगलती चिमनी, सांसों में अब घुटन है।
मायूस हर कली है, उजड़ा सा अब चमन है।
दूरी भी है दिलों में ,रिश्तों में अब चुभन है।
दुर्दशा अब मनुज की देखी न रेखा जाए।
बरसात आंसुओं की छलक छलक जाए।