“बप्पा रावल” का इतिहास
बप्पा रावल का जन्म 713-14 ई. में हुआ था, इन्हें कालभोज अथवा कालभोजादित्य के नाम से भी जाना जाता है, उनको बचपन में भील जनजाति के लोगों का भी सहयोग मिला, इनके जन्म के समय चित्तौड़ पर मौर्य शासक मानमोरी का शासन था। 734 ई. में बीस वर्ष की आयु में बप्पा रावल ने मानमोरी को पराजित कर चित्तौड़ दुर्ग पर अपना अधिकार कर गुहिल राजवंश की स्थापना की, वैसे गुहिलादित्य को इस राजवंश का संस्थापक माना जाता है। इसी राजवंश को सिसोदिया राजवंश भी कहा जाता है। इसी राजवंश में आगे चलकर महान् राजा राणा कुंभा, राणा सांगा व राणा प्रताप ने जन्म लिया। वास्तव में ‘बप्पा’ संबोधन आदर सूचक सम्मान का द्योतक है, जो इनके प्रति उनकी प्रजा के सम्मान और समर्पण को व्यक्त करता है।
ऐसा माना जाता है कि हरीत ऋषि की कृपा से बप्पा रावल को महादेव भगवान् शिवजी के दर्शन करने का सौभाग्य मिला था। यही कारण है कि आगे चलकर उन्होंने उदयपुर के उत्तर कैलाश पुरी में एकलिंगजी के मंदिर का निर्माण करवाया तथा इसी मंदिर के पीछे उन्होंने आदि वाराह मंदिर का भी निर्माण करवाया। इसी के निकट हारीत ऋषि का भी आश्रम है। बप्पा की विशेष प्रसिद्धि अरबों को परास्त करने के कारण हुई। सन् 712 ई. में मुहम्मद बिन कासिम ने सिंध को जीता, उसके बाद अरबों ने चारों ओर धावे करने शुरू किए। उन्होंने चावड़ों, मौर्यों, सैन्धवों, कच्छेल्लों को हराया, मारवाड़, मालवा, मेवाड़, गुजरात आदि सभी स्थानों पर उनकी सेनाएँ छा गईं। इस भयंकर कालाग्नि से बचाने के लिए ईश्वर ने जिन महावीरों को धरती पर उतारा, उनमें विशेष रूप से गुर्जर प्रतिहार सम्राट् नागभट्ट प्रथम और बप्पा रावल के नाम उल्लेखनीय हैं। नागभट्ट प्रथम ने अरबों को पश्चिमी राजस्थान और मालवा से मार भगाया, जबकि बप्पा रावल ने भी यही कार्य मेवाड़ व उसके आसपास के प्रदेश के लिए किया। बप्पा रावल, प्रतिहार शासक नागभट्ट प्रथम तथा चालुक्य शासक विक्रमादित्य द्वितीय की सम्मिलित सेना ने अल हकम बिन अलावा, तामीम बिन जैद अल उतबी व जुनैद बिन अब्दुल रहमान अल मुरी की सम्मिलित सेना को पराजित किया। इस लड़ाई में उन्हें भील समुदाय का भी भरपूर सहयोग मिला। 735 ई. में हज्जात ने राजपूताने पर अपनी फौज भेजी, जिसे बप्पा रावल ने हज्जात के मुल्क तक खदेड़ दिया था। वर्तमान भारत के हिसाब से देखा जाए तो बप्पा रावल ने 18 अंतरराष्ट्रीय विवाह किए थे। उन्होंने अरबों को हराकर उन्हे अपनी अधीनता स्वीकार कराई तथा उनकी पुत्रियों से विवाह किया। बप्पा रावल की लगभग सौ पत्नियाँ थीं, जिनमें कई मुसलिम शासकों की बेटियाँ थीं, जिन्हें इन शासकों ने बप्पा रावल के भय से उन्हें ब्याह दिया था। मेवाड़ लौटते समय बप्पा रावल ने गजनी के शासक सलीम को हराकर वहाँ अपने भतीजे को गवर्नर बना कर बैठा दिए, तत्कालीन ब्रह्मनाबाद और वर्तमान कराची बप्पा रावल का एक प्रमुख सैन्य ठिकाना था। पाकिस्तान का शहर रावलपिंडी बप्पा रावल के नाम से ही जाना जाता है। गौरीशंकर ओझा ने अजमेर से प्राप्त सिक्के को बप्पा रावल के समय जारी किया गया सिक्का स्वीकार किया है। इस सिक्के का तोल 115 ग्रेन (65 रत्ती) है। इस सिक्के में सामने की ओर ऊपर के हिस्से में माला के नीचे श्री बोप्प लेख है। इसके बाईं ओर त्रिशूल है और उसके दाईं ओर वेदी पर शिवलिंग बना है। इसके दाहिने ओर नंदी शिवलिंग की ओर मुँह करके बैठे है। शिवलिंग और नंदी के नीचे दंडवत करते हुए एक पुरुष की आकृति है, सिक्के के पीछे की ओर चमर, सूर्य और छत्र के चिह्न हैं। इन सबके नीचे दाहिने ओर मुँह किए एक गौ खड़ी है और उसी के पास दूध पीता एक बछड़ा है। ये समस्त चिह्न बप्पा रावल की शिवभक्ति और उनके जीवन की कुछ घटनाओं की ओर संकेत करते हैं। महाराणा कुंभा के समय रचित ‘एकलिंग महात्म्य’ के विवरण के अनुसार संवत् 810 तद्नुसार सन् 753 ई. में 39 वर्ष की आयु में बप्पा रावल ने संन्यास ग्रहण किया और राज्य का भार अपने पुत्र को सौंपकर एकलिंग की उपासना में लग गए तथा लगभग 97 वर्ष की आयु में स्वर्ग सिधारे। वे राज्य को अपना नहीं मानते थे, बल्कि शिवजी के एक रूप एक लिंगजी को ही राज्य का असली शासक मानते थे और स्वयं उनके प्रतिनिधि के रूप में राज्य चलाते थे। उनकी समाधि एकलिंग पुरी से उत्तर, बीस मील की दूरी पर स्थित नागदा नामक स्थान पर है, यहीं उनकी राजधानी थी। बप्पा रावल ने अरबों की आक्रामक सेनाओं को अनेकों बार ऐसी निर्णायक पराजय दी कि अगले 400 वर्षों तक किसी ने भी भारत पर आक्रमण करने का साहस नहीं किया।
बप्पा रावल को नमन💐 🙇