बन्नी बनी बिन्नो
बन्नी बनी बिन्नोbinno
चिकित्सा जगत से जुड़े सामाजिक रिश्तों की कहानी
डॉ पी के शुक्ला
M D
1
एक थी बिन्नो। शहर की सघन आबादी वाले पुराने इलाक़े में सटी-सटी दुकानों की क़तार के बीच स्थित मकानों में से एक दो-मंज़िल मकान में उसका घर था। इन मकानों की अधिकतर छतें आपस में जुड़ी हुई थीं जो गली-मोहल्ले की नई पीढ़ी के उभरते शोहदों के इश्किया कारोबार के लिए अनुकूल भौगोलिक वातावरण उपलब्ध कराती थीं। हर मकान के नीचे सड़क के दोनों ओर आमने-सामने दशकों पुरानी दुकानें चली आ रहीं थीं जिनमें से हर दूसरी या तीसरी दुकान किसी सुनार की या बन्दूक वाले की होती थी, जिनके लेन-देन का व्यापार इलाक़े में अपने साझा किये ग्राहकों की आपराधिक परिस्थितियों में हुए नफ़ा-नुक़्सान के आधार पर हुई लूट की अदला-बदली पर चलता रहता था। अर्थात एक के द्वारा उपलब्ध संसाधनों से अगर उधर लूटा तो इधर बेचा और इधर लूटा तो उधर बेचा। बिन्नो के घर की पहली मंज़िल पर एक लम्बा और संकरा लोहे की सरियों की ग्रिल लगा खुला छज्जा था और उस मंज़िल के कमरों के बाहरी दरवाज़े इसी गलियारे में खुलते थे। उसके घर के नीचे बाज़ार की सड़क पर एक-दूसरे से कंधे से कंधे रगड़ाती, गरियाती, झगड़ती पैदल रिक्शा साइकिल मोटर साइकिलों से टकराती, आती-जाती व्यस्त, व्यग्र भीड़ को उस छज्जे पर से देखते रहना, घण्टों तक समय बिताने के लिए एक मनोरंजक साधन था। बिन्नो भी अक्सर उसी छज्जे पर से नीचे ताक-झांक करते हुए बड़ी हुई थी। किशोरावस्था की वयसन्धि को पार करती युवा बिन्नो का यूँ झाँकना अब घर वालों को अखरता था, जिससे बचने के लिए बिन्नो छज्जे पर खुलने वाले दरवाज़े की देहरी पर बैठ कर आपना एक पाँव छज्जे पर लटका कर और दूसरा कमरे के भीतर रख कर अपनी पीठ दरवाज़े की चौखट से और घुटने पर अपने स्कूल की पढ़ाई की कोई किताब टिका कर कुछ इस तरह से छज्जे से नीचे घण्टों झाँकती रहती थी कि घर वाले समझें कि वो बड़े ध्यान से पढ़ रही है जबकि वो खुद नीचे सड़क पर होती हलचल को ताकती रहती थी। इधर कुछ दिनों से बिन्नो को पता नहीं क्यों यह लगने लगा था कि जब वो नीचे से गुज़रने वाले किसी हमउम्र लड़के को देख रही होती है तो वो हर लड़का भी अक्सर अपना सर उठा कर उसे ही देख रहा होता है, जिस लड़के को वो देख रही होती है। बिन्नो के घर के सामने भी एक सुनार की दुकान थी, जिसके चबूतरे पर एक युवा स्वर्णकार बैठता था जिसका नाम बब्बू था। वो गहनों की गढ़वाई, जड़वाई, जुड़ाई-तुड़ाई, पॉलिश आदि का काम करता था। वो रोज़ सुबह दुकान खुलते ही चबूतरे पर अपनी दरी चादर बिछा के उस पर अपना कुप्पा, बगनार, जेन पेपर आदि से अपना ठीहा सजा कर बैठ जाता था और देर शाम दुकानें बंद होने तक वहीं बैठा रहता था। इधर कुछ दिनों से वह बड़ी देर देर तक खाली समय में बैठे-बैठे छज्जे पर बैठी बिन्नो को ताकते रहने में और इससे बचे शेष समय में अपने आने वाले ग्राहकों को संतुष्ट करने में व्यतीत करता था। उसकी इस हरकत का बिन्नो को तब पता चला जब एक दिन बिन्नो की झाँक के दायरे में बब्बू फुंकनी मुँह में दबाये एक आँख बंद कर के अपनी हथेली पर जेन पकड़े किसी गहने में टाँका लगाने के बहाने अपनी दूसरी खुली आँख से बिन्नो को तक रहा था। बस उसी पल से जो बिन्नो की दोनों आँखें अनजाने में बब्बू की एक खुली आँख से टकराई तो वो इसे उसका कोई इशारा समझ वहीं उलझ कर रह गई। रोज़ बिन्नों की ओर उठती सड़कछाप निगाहों से अलग उस दिन बब्बू की नज़र बिन्नो को भीतर तक गुदगुदा गयी जिसके सम्मोहन में बंधी बिन्नो काफी देर तक अपनी पसलियों के भीतर धड़कते दिल को थामें जड़वत उसे ही देखती रह गई। इस पहली नज़र के पहले तीस सेकंड के बाद से तो खोई-खोई बिन्नों के लिए समय का अंतराल न जाने कहाँ खो गया और अब ये आँखों के टकराने का सिलसिला दोनों की जानकारी में जानबूझकर और नित्य प्रायः लम्बे-लम्बे समय तक निरन्तर और प्रगाढ़ होने लगा। बिन्नो बन-ठन के छज्जे की देहरी ऊपर बैठ लटें बिखराये अपनी कॉपी घुटनों पर टिका कर और उधर नीचे से बगुला भगत समान चेष्टा लिये बब्बू टकटकी लगाये प्रणय पुल्कित होकर एक-दूसरे में खोये-खोये से घण्टों बैठे रहते, जब तक कि घर के अंदर से बिन्नो का बुलावा या बब्बू का कोई ग्राहक न आ जाता। काफी दिनों तक उनकी नज़रों के तीर सड़क के आर-पार यूँ ही ख़ामोशी से उड़ते हुए उन दोनों बीच की लगन को बढ़ाने वाले सम्बन्धित हार्मोन्स का उनके भीतर विस्फ़ोट करते रहे। फिर एक दिन बब्बू ने नज़र उठाई तो पाया कि बिन्नो साक्षात अपनी भोली-भाली आँखों से उसके सामने खड़ी उसे देख रही है। यकायक बिन्नों को अपने सामने इतने करीब खड़ा देख कर वह कुछ सकपका गया। वही चेहरा वही आँखे वही चितवन लिये वो सशरीर उसके इतने नज़दीक उसपर अधझुकी स्थापित सी थी। उसे लगा दूर छज्जे पर से से बिन्नो जितनी सुंदर लगती थी पास से वो उससे भी कहीं ज़्यादा आकर्षक थी। बिन्नो की निकटता के सम्मोहन में बंधे बब्बू के मन में उठे जज़्बातों के झंझावात से वो निःशब्द हो गया। मन्त्रमुग्ध बब्बू के मन में बिन्नों के अगले कदम के बारे में अनेक आशंकायें जन्म लेने लगीं। तभी उनका निराकरण करते हुए बिन्नों ने अपनी मुट्ठी में दबे हुए अपनी अम्मा के टूटे मंगलसूत्र में टाँका लगवाने के लिए बब्बू को देते हुए कहा –
” इसे जुड़वाना है ”
अब जब वो बिल्कुल उसके सामने थी तो अनायास बब्बू ने अपने पर काबू रखते हुए और अपने भीतर उठे तूफान को नियंत्रित करते हुए अपनी नज़रें झुका लीं और उससे माला हाथ में लेते हुए कहा-
” ठीक कर के मैं पहुँचा दूँगा।”
फिर फटाफट माला जोड़ के एक कागज़ में लपेट कर बब्बू ने बिन्नो के घर की सीढ़ियों पर से दस्तक दी, अंदर बेसब्री से इन्तज़ार करती बिन्नो झट से घर की सीढ़ियों पर अकेली उतर आई। बब्बू ने चुपचाप कागज़ में बंद मंगलसूत्र की पुड़िया बिन्नों के घर की सीढ़ियों के सन्नाटे में उसकी ओर बढ़े बिन्नो के हाथ पर थमा दी और किसी प्रत्योत्तर के या मेहनताने की प्रतीक्षा किये बगैर ख़ामोशी से सरपट पलट लिया। अंदर जाकर बिन्नो द्वारा पुड़िया खोलने पर वह कागज़ जिसमें मंगलसूत्र बन्द था, बिन्नों के लिये प्रेमपत्र में बदल चुका था जिसमें बब्बू ने लिखा था कि आज रात को वो मोहल्ले के देवी जागरण में रहेगा और उसके नीचे अपना मोबाइल नम्बर लिख दिया था। यह सपाट अर्थों में बिन्नों को स्नेह आमंत्रण प्रतीत हुआ और नये सम्बन्ध की गोपनीयता बनाये रखने के लिए भी यह स्थल और आयोजन दोनों के लिए अनुकूल था। बब्बू की निकट झलक पाने की ललक में बेसुध, खोई-खोई, लजाती बिन्नो के अनायास बढ़ते क़दम उसे उस रात देवी जागरण के पंडाल में ले गये जहाँ दोनों का परस्पर आमना-सामना हो गया। बब्बू ने पुरुषों की संगत में बैठकर और बिन्नो महिलाओं की संगत में, बेझिझक एक-दूसरे के सामने जम कर बैठ गये। उस रात वहाँ उनके बीच कतारबद्ध बजते ढोलक, मंजीरे, खड़ताल, हारमोनियम और संगत के भक्तिमय भजनों के संयोजन से चारों दिशाओं में गुंजायमान करते डी.जे. लाउडस्पीकरों से उठे तुमुल कोलाहल कलय के स्वरों से ऊपर उठ कर शब्दों की सामर्थ्य के परे उन दोनों के ह्रदय से उठी तरंगों का दृष्टि मात्र से सम्प्रेषण एक-दूसरे की रेटिना पर प्रक्षेपित करते हुए भोर तक वे प्रणय प्रतीक सरोवर में आनन्द प्रमोद के गोते लगाते रहे। एक-दूसरे की दृष्टिपरिधि में बाधा उत्पन्न करते नर मुंडों और वाद्ययंत्रों के बीच रिक्त स्थान से खुली झिर्रियों ने बीच में से बिना थके एक पल के लिए भी न बब्बू ने नज़र हटाई और न बिन्नो ने नज़र झुकाई। उनके अंतर्मन में जगी पहली-पहली उल्फ़त की लौ भी यह रात कभी न ख़त्म हो और इस रात की कभी भोर न हो की तमन्ना लिये जलती रही। सारी रात वे दोनों बिना बातों के तमाम बातें ख़ामोश लब और खुली पलकों से करते रहे। शायद अंदर से कहीं इस बात से डरे-डरे से कि अगर नज़र हटाई तो कहीं ये रात ढल न जाये। फिर उनके बीच वो पल भी समा गया जब जागी आँखों में स्वप्न साकार करती उनकी तन्द्रा, भोर की मंगला आरती की लय से भंग हो गयी। फिर किसी स्वप्नलोक से वर्तमान जगत में लौटे उनके जीवन में वह एक ऐसी सुबह हुई थी जैसी इससे पहले कभी हुई ही नहीं थी, जिसकी सुखद मूक स्मृतियों का अहसास मन में संजोये वे दोनों पंडाल से अलग हो गये।
फिर अगले दिन और उसके अगले दिन और फिर तीसरे दिन भी बिन्नो छज्जे पर नहीं आयी। उदास बब्बू की बिन्नो को खोजती निगाहें छज्जे से टक्करें मार कर खाली लौट आतीं। चौथे दिन आशंका और विछोह से घिरे उन्ही पलों को काटते बब्बू के मोबाइल पर मैसेज गिरा –
“कैसे हो – तुम्हारी बिन्नो”
बब्बू ने नज़र दौड़ाई, बिन्नो छज्जे पर नहीं थी। बब्बू ने भी –
“हमारी बिन्नो – तुम्हारे बिन – तुम्हारा बब्बू”
का एक संक्षिप्त मैसेज भेजा। इसके बाद तो नयनों की भाषा से ज़्यादा मोबाइल पर text messages में बातें होने लगीं, फिर धीरे-धीरे ये messages लम्बे और लम्बे-लम्बे होने लगे और फिर भी मन की बात कहने को जब छोटे पड़ने लगे तो एक दिन इनका स्वरूप audio massages ने ले लिया और फिर एक समय वो आया जब पूरी रात उनके messages के आदान-प्रदान में भोर की पौ फट जाती। जल्द ही ये रात-रात भर के मैसेजेस और दिन-दिन भर की आँखों-आँखों की ख़ामोश जुगलबंदी से उपजी चाहत और विश्वास के भरोसे वो दोनों उल्फ़त के उस मुकाम पर पहुँच गये थे कि वो जान गये अब जीने के लिए मिलना बहुत ज़रूरी हो गया है। पहले तय हुआ कि कुछ समय भीड़-भाड़ वाली जगहों पर अनजानों के तौर पर मिलेंगे, पर बाद में जल्दी ही अतरंगी सन्नाटे वाली जगहों पर मिलने के लिये उनके पाँव मुड़ गये। उनको इस तरह चोरी-छिपे मिलते-टकराते कुछ महीने गुज़र गये। अपने दिमाग़ पर दिल्लगी का बोझ ढोती बिन्नो इधर बी.ए. की परीक्षा में फेल हो गई और उधर घर वालों की तरफ से बिन्नो की पढ़ाई पूरी हुई की घोषणा कर दी गयी। उसके चाल-चलन पर शक करते हुए घर वालों की तरफ से बिन्नो का बाहर निकलना कम करा दिया गया। अब उन दोनों के बाहर मिल सकने के बहाने और साधन बहुत कम हो गये। फिर भी चोरी-छुपे कभी तपती दुपहरियों की छत तो कभी भीगती बरसात की विषमता उनके मिलन की समरसता बन जाती थी। मिल पाने की इतनी मुश्किलें और न मिल पाने की बेकरारी उनकी ज़िंदगी में उत्पात मचाये थी। बब्बू भी समाज के उन अधिकतर लौंडों में नहीं था जो प्यार तो अपने कॉलेज या गली मुहल्ले की लड़कियों से करते थे और शादी अपने बाप के द्वारा पसन्द की गयी दहेज की सीढ़ियों से उतरती किसी और लड़की से करते थे। अतः जब उनके बीच जुदाई का ये सड़क की चौड़ाई भर का फ़ासला नाक़ाबिले बर्दाश्त हो गया तब उस फ़ासले को पाटने के लिये और कोई शांति का उपाय न सूझ पाने के कारण उन्होंने शुरू में समाज से बगावत का सहारा लिया फिर तमाम किन्तु परन्तु, समाज-पुलिसिया भागदौड़ के बावज़ूद येन केन प्रकारेण एक दिन समाज के नियमों से बंधे विवाह सूत्र के बंधन में बंध गये। फिर अपने उज्ज्वल भविष्य के लिये सँजोये सपने साकार करने के लिए अपनी पूर्वनिर्धारित योजना पर अमल करते हुए वे लोग वहाँ से कुछ दूरी पर ही एक किराये के मकान में जा कर रहने लगे। इस प्रकार हमारी प्यारी बिन्नो, बब्बू की बन्नी बन अपना घर बसा कर रहने लगी।
कितना ही अच्छा होता कि विधना रचित इस सुखांत प्रेम कहानी का अंत अगर यहीं हो जाता तो क्यों कर डॉ पन्त जी को इनके परिप्रेक्ष्य में सामने आना पड़ता ।
2
एक शांत शाम को डॉ पन्त जी अपने कक्ष में खाली बैठे थे, उस समय वहाँ लगे सीसीटीवी पर हो रही हलचल से उन्हें लगा कि अस्पताल के प्रमुख द्वार पर कुछ लोग एक ऑटो से खींचते हुए किसी मरीज़ को हाथों से उठा कर स्ट्रेचर पर लिटा रहे थे। तभी वार्ड बॉय ने आकर ख़बर दी कि सर एक इमेरजेंसी आई है। डॉ पन्त जी चल कर स्ट्रेचर के पास पहुँच गये। उस पर लेटी अधेड़ महिला के साथ आये बेचैन तीमारदारों की उग्र भीड़ ने बताया कि इन्हें बार-बार सीने में दर्द, छटपटाहट और साँस लेने में दिक्कत के साथ बेहोशी के दौरे पड़ रहे हैं। वे लोग उसे विभिन्न अस्पतालों में पिछले चार दिनों से भर्ती रख कर अब तक दो अस्पताल और चार डॉक्टर फेल कर चुके हैं, पर इनकी हालत में कोई सुधार नहीं है। कोई फायदा न होने पर अब वे लोग वहीं से इनको उठा कर आप का बड़ा नाम सुन कर इनको यहाँ लेकर आये हैं।
वे लोग अपने हाथों में चार-पाँच छोटे-बड़े थैले भर कर सामान्य खून की जाँचों समेत दिमाग़ के एम.आर.आई स्तर तक की रिपोर्ट्स लिये खड़े थे, जो सभी नार्मल थीं। डॉ पन्त जी को मृत लाये, मृतप्राय, मरणासन्न, मूर्छित अथवा अर्ध मूर्च्छित रोगी को आसानी से पहचान कर उसके तीमारदारों को समझना और उन्हें सन्तुष्ट करने का प्रयास करना आये दिन का काम था पर उस समय स्ट्रेचर पर निश्चल पड़ी मरीज़ा की मुंदी पलकों की हरकत उसकी मानसिक उलझन बैचैनी के लक्षण दर्शा रही थी, ऐसे मरीज़ों का इलाज करना तो डॉ पन्त जी के लिए आसान था पर साथ आये तीमारदारों को झेलना बड़ा कठिन साबित होता था। रोगी का अपने परीक्षण के प्रति असहयोग और साथ आये तीमारदारों की बैचेनी के मद्देनजर डॉ पन्त जी ने उसे भर्ती कर लिया। फिर उसके तीमारदारों को वहाँ से हटवा कर उनके रोगी के इलाज के प्रति अपनी गम्भीरता साबित करते हुए उसका इंजेक्शन बोतल वाला इलाज चालू करवा, डॉ पन्त जी अपने कक्ष में आ कर बैठ गये। कुछ देर बाद घण्टी बजा कर उन्होंने रोगी के घर वाले किसी क़रीबी रिश्तेदार को अंदर बुलवाया। थोड़ी देर बाद एक लगभग बीस वर्षीय लड़के ने अंदर आकर बताया कि उसके पिता जी दुकान पर हैं और जो अभी भर्ती हुई हैं वो उसकी मम्मी हैं, उसने कहा-
“डॉ साहब आपको जो बताना है मुझे ही बता दीजिये।”
डॉ पन्त जी ने उसे सांत्वना देते हुए कहा-
“आप की मम्मी का व्यवहार देख कर लगता है कि ये किसी समस्या की वजह से गहरी उलझन बैचैनी में हैं, जिसका हल इन्हें नहीं सुझाई दे रहा है। इनके जीवन में हाल फ़िलहाल कोई ऐसी सदमें वाली बात तो नहीं हुई है?”
यह सुन कर कुछ संकोच के साथ वो बोला –
“जी सर, अभी हाल ही में मेरे बड़े भाई की शादी हुई है और शादी के बाद इनकी बहू इनके बेटे को लेकर भाग गई है और वो अब वापिस आने के लिये नहीं तैयार है। शायद इसी बात को लेकर ये परेशान हैं। हम लोग बहुत समझाने का प्रयास करते हैं पर मानती नहीं हैं।”
पन्त जी अब तक तो ये सुनते आये थे कि अमुक लड़का अमुक की लड़की को भगा ले गया पर किसी विवाहित महिला द्वारा किसी के लड़के को भगा ले जाने वाली यह घटना उनके लिए भी अनोखी थी। फिर अपने ख़्यालों को झटककर पन्त जी बोले-
“ठीक है, अब तुम जाओ ख़तरे की कोई बात नहीं है, इन्हें आराम करने दो, दवाइयों से कुछ मदद मिलेगी। जब इन्हें दौरा पड़े तो पड़ लेने देना, बस इनके पास भीड़ मत जुटने देना। भीड़ देख कर इनकी बीमारी भड़केगी। ये धीरे-धीरे ठीक होंगी, इन्हें ठीक होने में समय लगेगा।”
इस बीच आये कुछ अन्य मरीज़ निपटा कर पन्त जी आला लेकर उस मरीज़ा के कक्ष में गये। फिर सारे रिश्तेदारों को बाहर कर सिर्फ़ छोटे बेटे को अंदर रोक लिया। वह कुछ आराम से पर अब भी आँखें बंद किये दांत भींचे तनावग्रस्त लेटी थी। डॉ पन्त जी ने आले का दूसरा सिरा उसके पेट से सटा दिया और उस पर कुछ झुक कर उसे धीरे से समझते हुए, रुक-रुक कर बोले-
“मैं जानता हूँ कि आप बेहोश नहीं हैं और मेरी बात सुन सकती हैं। मैं यह भी समझ रहा हूँ कि आप की परेशानियों को कोई समझ नहीं पा रहा है और न ही गम्भीरता पूर्वक कोई उन्हें ले रहा है। आप पर मुश्किलों का पहाड़ टूट पड़ा है और आपको उनका कोई हल निकलता दिखाई नहीं दे रहा है। आप जो चाहतीं हैं वो आपके छोटे बेटे ने मुझे बता दिया है। आप जो चाहती हैं उसे मैं आपके नुस्ख़े में शामिल कर लूँगा। क्या मैं आप की बहू-बेटे को आप के पास बुलवा दूँ?”
पन्त जी की बात सुन कर उसकी आँख से आँसू ढलक आये। पन्त जी ने अब आला हटा कर अपनी गर्दन पर टांग लिया और कहा-
“आप जो चाहतीं हैं, हो जायेगा बस आप अपने इलाज में मेरा सहयोग कीजिये, मैं जैसा कहूँ वैसा करती जाइये। अपनी बात रखने और कहने के और भी तरीके हो सकते हैं ऐसा व्यवहार करने पर मेरे द्वारा आपका उल्टा-सीधा इलाज हो जायेगा, हो सकता है मुझे आपकी नाक में से पेट तक और पेशाब में नली डलवानी पड़े और आपकी रीढ़ की हड्डी में छेद कर पानी निकाल कर जाँच करवाने के लिये भेजना पड़े जिसमें आपको वास्तविक तकलीफ़ होगी और फ़ालतू पैसा भी ख़र्च होगा लेकिन यदि आप ठीक होती जायेंगी तो शायद इसकी ज़रूरत न पड़े। आप के ऐसा करने से सिर्फ़ आप ख़ुद को तकलीफ़ दे रहीं हैं और आपकी इन तकलीफों का किसी पर कोई असर नहीं पड़ने जा रहा। मेरी राय में आप अपनी बात को शब्दों में बोल कर सही ढंग से प्रस्तुत करें या फिर अब मैं जैसा कहूँ वैसा करती जाइये। मैं बाहर जाकर सबसे कह दूँगा कि आपको तगड़ा वाला हार्ट हो गया है और आपको सख़्त आराम की ज़रूरत है। आप बस आराम से चुपचाप लेटी रहियेगा।”
पता नहीं ये उस पर ट्रेंकुलाइजर इंजेक्शन का असर था या पन्त जी की बातों का, पर यह सुन कर उसके चेहरे पर हल्की सी मुस्कुराहट आई। पन्त जी ने कक्ष से बाहर निकलते हुए उसके छोटे बेटे से पूछा –
“इन्होंने कुछ खाया है?”
वो बोला –
“कुछ नहीं सर, पिछले चार दिन से इन्होंने कुछ नहीं खाया है। सब जगह बस गुलूकज़ चढ़ रहा था। ये खाने को मना कर देतीं हैं।”
पन्त जी बोले –
“जाओ, बिना हल्ला मचाये दौड़ कर कुछ रसगुल्ले, छोले-भठूरे, आलू की टिक्की, रबड़ी मलाई आदि खाने की बढ़िया चीज़े ले आओ और छिपा कर इन्हें खिलाओ, पर ध्यान रहे कि अगर इनकी बहू अर्थात तुम्हारी भाभी या कोई अन्य रिश्तेदार आने वाला हो तो उसके आने से पहले इनके आस-पास से खाने-पीने के सारे सबूत मिटा देना।”
समझ गया सर, अभी लाता हूँ कह कर वो बाहर निकल गया।
उसके कक्ष से बाहर आते ही रिश्तेदारों की भीड़ ने पन्त जी को घेर लिया, सबका वही सवाल की अब वो कैसी हैं। पन्त जी ने भीड़ से मुख़ातिब होते हुए कहा कि इस समय हालत स्थिर है, पर उन्हें सख़्त आराम की ज़रूरत है, आप लोग अंदर न जायें। इनके पति और बड़े बेटे आयें तो मुझसे मिल लें। पन्त जी फिर अपने कक्ष में आकर बैठ गये। कुछ समय बीतने के बाद उसके बौखलाए से पति व घबराये बड़े बेटे जिसका हाल ही में विवाह हुआ था ने एक साथ पन्त जी के कक्ष में प्रवेश किया। उन्होंने भी सम्वेत स्वर से फिर वही प्रश्न किया कि अब वो कैसी हैं?
प्रत्योत्तर में पन्त जी ने भी फिर वही बात दोहरा दी कि वो सदमें में हैं और उन्हें सख़्त आराम की ज़रूरत है। फिर अपने चेहरे पर कुछ अतिरिक्त गम्भीरता धारण करते हुए पन्त जी ने कहा –
“आपके यहाँ कोई महिला होगी, ताई, चाची, मामी टाइप की जो आराम से उठाने-बैठने में इनकी मदद करे, इनकी सेवा कर सके ?”
यह सुन कर पति सोच में पड़ कर बेटे की ओर देखने लगा तो इस पर बेटा बोला –
“हाँ है ना”
पन्त जी- “कौन”
बेटा- “मेरी वाइफ”
पन्त जी ने यह समझते हुए कि यह अभी अपनी नई-नवेली पत्नी से अनुमति लिए बग़ैर सेवा हेतु उसके नाम की पुष्टि कर रहा है अतः उसके कथन को सन्देह की दृष्टि में रखते हुए उन्होंने संक्षिप्त में “ठीक है”
कह कर उन्हें जाने दिया।
अगले राउंड के समय पन्त जी ने देखा कि उस मरीज़ के पास वाक़ई में एक लिपिस्टिक, पॉउडर, बिंदी, लाली पोते, कोहोनियों तक मेंहदी रचाये और उससे कुछ नीचे तक चमकीली चूड़ियाँ चढ़ाये आंशिक रूप से सिर पर पल्लू ढके सिर झुकाये एक सामान्य किन्तु आकर्षक बनावट वाली युवती सिमटी सिकुड़ी सी चुपचाप नई बहू का पोस्टर बनी मरीज़ के पैताने खड़ी थी। बेटा बोला डॉक्टर साहब आ गये। युवती ने हल्का सा सिर घुमा कर कनखियों से पन्त जी को देखा और पन्त जी ने उसे। पन्त जी की नैदानिक सह-संबंध स्थापित करती पारखी नज़रों से उसके चेहरे पर छाई मायूसी और उसका लगभग 8.4 ग्राम हेमोग्लोबिन वाला पीलापन छुप न सका। पन्त जी की उसके प्रति जिज्ञासा को शांत करते हुए कक्ष में छायी चुप्पी को तोड़ते हुए छोटा बेटा बोला ये मेरी नई भाभी जी हैं और मरीज़ा बोली कि हाँ डॉक्टर साहब यही है मेरी बहू-
“बिन्नो”
पन्त जी ने मरीज़ का राउंड लेने का अभिनय करते हुए कुछ सामान्य सा वार्तालाप किया फिर चलते समय शांत खड़ी लगभग 8.4 ग्राम हेमोग्लोबिन वाली युवती को समझाते हुए कहा –
“आप देख ही रहीं हैं, आप की सासू जी की हालत कैसी हो रही है। इनके दिल-दिमाग़ पर गहरा सदमा लगा है। अब इन्हें पूरे आराम की ज़रूरत है दवा से ज़्यादा सेवा-सुश्रूषा काम करेगी। अब इनकी सारी ज़िम्मेदारी तुम्हारे ऊपर ही है, इनका ध्यान रखना कोई और सदमे वाली बात इनके आगे न हो, वरना इनकी जान को खतरा है”
पता नहीं पन्त जी की बात से बिन्नो ने क्या निष्कर्ष निकाला पर जब डॉ पन्त अन्य मरीज़ों का रात में राउंड ले रहे थे तो उन्होंने देखा कि बिन्नो सर झुकाये कांपते हाथों में फीमेल यूरिन का पॉट (चिलमची) लिये वार्ड से बाहर निकल रही थी। चिलमची में हिलोरें लेते मूत्र के जल तल पर पड़ती अपने चेहरे के प्रतिबिंब में बनती बिगड़ती सूरत और अपने हालात देख कर उसने पच्छत्तर कोनों में मुँह बिसोर रखा था। पन्त जी अपने सिखाये-पढ़ाये मरीज़ा के सहयोग की पराकाष्ठा पर अचंभित थे। इलाज में इस हद तक सहयोग देने वाले मरीज़ उनको भी जीवन में कम ही मिले थे। धन्य है वो सास जिसने अपनी बहू को रास्ते पर लाने के लिये बिस्तर पर पड़े-पड़े मूत कर चिलमची बहू के हाथ में थमा दी। मरीज़ा की हालत में सुधार हो रहा था जिससे रिश्तेदार सन्तुष्ट थे। अगले दिन सुबह राउण्ड के बाद उस मरीज़ा के बेटे ने पन्त जी के कक्ष में आ कर कहा-
“डॉ साहब हमारी मम्मी की छुट्टी कर दीजिये वो अब ठीक हैं”
पन्त जी ने उससे कहा कि अभी एक दो दिन और भर्ती रहने दो, क्यों कि घर जाने पर वही माहौल देख कर इनकी हालत फिर बिगड़ सकती है, इस पर उसने कहा-
“सर, कल रात भाभी इनकी सेवा में अस्पताल में इनके पास ही रुकी थीं, अब इन दोनों का आपसी समझौता हो गया है और भाभी घर आकर इनके साथ रहने को तैयार हो गई हैं”
पन्त जी दवाओं से ज़्यादा परामर्श का असर देख रहे थे। उन्होंने मरीज़ा की छुट्टी कर दी। उसके साथ रह गयी कम होती भीड़ अब सामान बाँध कर चलने को तैयार हो गई तो पन्त जी ने देखा कि धीरे-धीरे चलते हुए सास ने कमज़ोरी के बहाने सहारा लेकर चलने का प्रदर्शन हुए अपने दाहिने हाथ का पंजा बहू के बाएँ कांधे पर गड़ा रखा था। बहू ने पीछे मुड़ कर बिल्ली के पंजे में फंसी किसी चुहिया के समान कातर दृष्टि से पन्त जी को देखा तो उन्हेँ लगा कि भगवान सबका भला करे पर यदि शीघ्र ही उन्होंने सास-बहू के इन रार-रंजित रिश्तों के समीकरण को यदि जल्दी नहीं ठीक किया तो उनके देखते-देखते बन्नी बनी बिन्नो, बीमार हो जायेगी।
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कितना ही अच्छा होता कि विधना रचित इन सास-बहुओं के रिश्तों की चिरकालीन, चिरपरिचित चली आ रही रार-रंजित कहानी का अंत अगर यहीं हो जाता तो क्योंकर डॉ (श्रीमती) पन्त जी को इनके परिप्रेक्ष्य में सामने आना पड़ता।
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काल चक्र के क्रम में फंसी बिन्नो ससुराल पहुँच गयी। खुली स्वच्छंद हवा में पली-बड़ी बिंदास बिन्नो ससुराल की चाहरदीवारी में घुट के रह गयी। उन्मुक्त निजी जीवन के जो सपने उसने बुने थे वे सच होने शुरू भी न हो पाये थे कि उजड़ गये। एकाधिकार का जो सम्राज्य उसने बसाना चाहा था वो पूरा होने से पहले ही उजड़ गया। पहले हफ़्ते से ही उसकी सासू जी ने कठोर अनुशासनिक कदम उठाने शुरू कर दिये। बाहर की ताक-झांक की आदी बिन्नो के लिए झरोखे, अटरिया पर से ताका-झांकी पर पाबंदियां लगा दी गईं। कभी उपन्यास, पारिवारिक या कोई फिल्मी पत्रिका पढ़ते पाये जाने पर कुसंस्कारी कह कर ताने मारे जाते। दूसरे हफ़्ते से घर की कामवाली महरी को लम्बी छुट्टी पर भेज दिया गया। बेचारी नवविवाहिता बिन्नो सुबह से जल्दी उठ कर दिन भर उसकी छाती पर मूंग दलती दिल पकड़े सास की तीमारदारी तो देर रात पति देव की ख़ुशामद में जुटी रहती। उधर उसका मात्रभक्त पति बब्बू घर में मातृसत्तात्मक प्रधान माहौल में पल कर बड़ा हुआ था। लगता था किसी जन्म जात उत्परिवर्तन के कारण अपनी अम्मा की किसी बात का विरोध कर सकने वाली नस का विकास उसके अंदर नहीं हो पाया था। उसके सिद्धांतों में मेरी माँ, मेरी माँ है, वो हमेशा सही होती हैं और यदि वो गलत है तो भी सही है क्यों कि वो मेरी माँ है। इन सब परिस्थितियों को नियति की मंज़ूरी मान कर बिन्नो विवशता में जी रही थी। कभी-कभी उसको लगता था मानों उसका जीवन किसी बंद सिरे वाली अंतहीन अंधेरी सुरंग में बढ़ता जा रहा है।
अस्पताल से छुट्टी करवाने के दस दिन बाद जब बिन्नो अपनी सासू माँ को डॉ पन्त जी को दिखाने लाई तो पन्त जी ने पाया कि ससुराल की परिस्थितिजन्य प्रभावों के कारण बिन्नो का चेहरा जितना उतरा हुआ था, उतना ही सासू माँ का खिला हुआ था। कुछ हाल-चाल बता कर तो कुछ हाव-भाव जता के वो एक महीने की दवा का पर्चा लिखवा कर चलीं गयीं तो चार हफ़्ते बाद ओ.पी.डी. में फिर प्रकट हो गईं। इस बार बिन्नो पहले से ज़्यादा झटक गई थी। सादे परिधानों में सहमी डरी सी बिन्नो के हाथों की मेंहदी अब उतर चुकी थी और उसकी जगह अब ससुराल की मसाले वाली हल्दी रच बस गई थी। सास की प्रसन्नता के विलोमानुपात में बिन्नो का दुखड़ा दर्शाती उनकी सूरत उनके आपसी रिश्तों की कहानी सुना रही थी। इस बार फिर वो गैस अफारा बता कर और कुछ लटके-झटके दिखा कर एक महीने की दवा का पर्चा लिखवा कर चली गईं। बहुत अनुभवी और सब कुछ समझते हुए भी पन्त जी बिन्नो की खुशहाली के लिए कोई निदान न खोज सके। अंदर से कहीं वो कुछ हद तक इसके लिए अपने को भी दोषी मानते थे। बात आई-गई हो गई। इस बात को क़रीब एक महीना गुज़र गया। एक दिन डॉ पन्त जी ने देखा कि वही दोनों सास-बहुएँ मरीजों की प्रतीक्षादीर्घा में बैठीं हैं। उनके पास से गुज़रते हुए एक लघु अभिवादन की अदला-बदली करते हुए वे अपने कक्ष में जाकर मरीज़ देखने लगे। कुछ देर मरीज़ देखने के बाद भी जब वो सास-बहू दिखाने अंदर नहीं आई तो उन्होंने घण्टी बजा कर वार्ड बॉय को बुला कर पूछा-
“बाहर वो दोनों सास-बहुएँ कैसे बैठी हैं”
वार्ड बॉय – “सर, उन्होंने मैडम को दिखाने के लिये पर्चा बनवाया है”
अपने पाले के पले-पलाये मरीज़ को पाला बदल कर पत्नी के पाले में जाते देख पन्त जी ने अपने अंदर क्षणभर के लिए उपजी हल्की सी व्यवसायिक जलन को दबा कर” हमें क्या फर्क़ पड़ता है, कहीं भी दिखाये” जैसी भंगिमा ओढ़ कर अन्य मरीजों को निपटाते रहे।
ओ.पी.डी. समाप्त करके, बाहर निकल कर कौतूहल वश उन्होंने वार्ड बॉय से फिर पूछा –
“कहाँ गईं, वे दोनों”
वार्ड बॉय – “सर, अल्ट्रासाउंड करवाने गईं हैं”
बात फिर आई-गई हो गई।
शाम को भर्ती मरीजों का राउंड लेते समय डॉ पन्त जी को अस्पताल के एक कक्ष के आंशिक खुले पर्दे के भीतर बिन्नो की सास की बैठी हुई झलक दिखाई दी। जिज्ञासु डॉ पन्त जी पर्दा सरका कर कक्ष में प्रविष्ट हो गये। वहाँ का नज़ारा देख पन्त जी की हैरानी की सीमा न रही जब उन्होंने देखा कि सदा सास की सताई बिन्नो साक्षात सामने बिस्तर पर सुखासन में विराजमान है। उसके पलँग के पैताये के दोनों पाये चार ईंटों की सहायता से उठे हुए थे और जिस पर वह अपनी दोनों टांगें ऊपर किये आराम से लेटी है। उसके सिरहाने डोली पर एक अधखाया सेब रखा था। उस समय वो एक पके हुए अँगूर के गुच्छे को हाथ में लेकर अपने होठों से अनारकली की मुद्रा में एक-एक अंगूर नोंच-नोंच कर खा रही थी। वहीं उसकी सास बराबर में लगी बेंच पर बिन्नो की उठी टांगों के स्तर के निचले क्षेत्र में सर झुकाये अपनी गोद में रखी एक थाली में से छिले हुए अनार के दानों को चुन-चुन कर एक प्याले में रख रही थी। पन्त जी ने शिष्टाचारवश उनसे प्रश्न किया-
“कैसी हैं, आप लोगों को कोई दिक्कत तो नहीं है?”
उसकी सास बोली- “नहीं, अब, सब ठीक है”
बहू के मुखमण्डल पर सास के उत्तर से उत्पन्न सन्तोष की झलक मिल रही थी। डॉ पन्त जी को उसकी पीत पर्ण तुल्य त्वचा देख उसका हेमोग्लोबिन और गिरकर अंदाज़न सात ग्राम तक पहुँचने का अंदेशा हुआ पर उसके बावज़ूद भी उसका चेहरा आत्मविश्वास से दमक रहा था। आश्चर्यचकित पन्त जी और कुछ कहे बिना कक्ष से बाहर आ गये।
सास-बहू के रिश्तों के समीकरण का यह उलटफेर डॉ पन्त जी को अपनी समझ से परे किन्तु सुखद लगा। वे यह तो भली-भाँति जानते थे कि उनकी ज़िन्दगी की शतरंज में किसी जमी जमाई, जीती हुई बाज़ी को अपनी एक चाल से उलट देना डॉ (श्रीमती) पन्त जी के बाएँ हाथ का खेल था पर इस बिन्नो की ज़िन्दगी की कायापलट उन्होंने अपने एक परामर्श से कैसे कर दी यह वो नहीं समझ पा रहे थे। घर जाकर खाने की मेज़ पर उन्होंने पत्नी से अपनी शंका निवारण हेतु अपनी बात को घुमाते हुए प्रश्न किया-
“तुमने प्राइवेट केबिन नम्बर तीन में कोई मरीज़ भर्ती किया है?”
श्रीमती पन्त- “हाँ, वो एक placenta previa वाली को threatend abortion की line पर डाल दिया है, बच्चे की धड़कन अभी सही है”
पन्त जी – “उसकी सास मेरे इलाज में थी”
श्रीमती पन्त जी ने सर्द लहज़े में कहा- “ये वही है न, जिसकी सास को आपने REST बताया था?”
पत्नी का प्रश्न सुन कर पन्त जी को मुँह का ग्रास गले में अटकता महसूस हुआ, जिसे उन्होंने पानी के घूंट के साथ सटक लिया और बन्द होंठों के बीच से एक घुटी हुई संक्षिप्त सी-
“हूँ”
की आवाज़ निकाल कर चर्चा का विषय बदलने के प्रयास में लग गये। वे जानते थे कि किसी नारी पर होते किसी भी प्रकार की हिंसा या भेदभाव होते देख कर डॉ (श्रीमती) पन्त जी का समस्त नारीजगत का प्रतिनिधित्व करता नारी सत्तावादी (female chauvinism) दृष्टिकोण उन पर हावी हो जाता है, जिसके आगे सम्पूर्ण पुरुष समाज इसके लिए दोषी हो उठता है, उनके अनुसार चूँकि दुनिया के सारे मर्द एक जैसे होते हैं, अतः इसका बदला खुद उनके अपने द्वारा बनाये नियमों के अनुसार सामने पड़ने वाले किसी भी प्रथम पुरुष से लिया जा सकता है। उस समय पन्त जी चुपचाप जल्दी-जल्दी अपनी प्लेट साफ़ करके उठ गये। कहीं न कहीं भीतर मन से वो पत्नी की इस मनोव्रत्ति के वहीं तक प्रशंसक थे जब तक कि वो खुद सीधे तौर पर उसका शिकार नहीं हो रहे होते थे। उन्हें पूरा भरोसा था कि इस समय वार्ड में भर्ती जिस बिन्नो की दुष्कर जीवन परिस्थितियों में धकेलने के लिए वो खुद कुछ हद तक ज़िम्मेदार थे और फिर चाह कर भी उन्हें न सुधार सके थे उस बिन्नो की क़िस्मत का काया पलट अब उनकी श्रीमती जी के द्वारा प्राप्त अभय वरदान युक्त परामर्श से हो के रहेगा। अब उसकी सास तो क्या कोई और माई का लाल भी उसका बाल-बाँका नहीं कर सकता। इस क़िस्से में पहले सास का इलाज एक पुत्र द्वारा माँ को दृष्टि में रख कर हो रहा था फिर बाद में एक बहू दूसरे की बहू को बहू की दृष्टि में रख कर इलाज कर रही थी। फ़र्क़ तो पड़ना था और फ़र्क़ खूब पड़ा। आगे चल कर बिन्नो की उच्च जोखिम से भरी प्रग्नेंसी सफलतापूर्वक पूरी हुई। उसका हिमोग्लोबिन बढ़ कर 12.4 हो गया और फिर एक दिन उसे सिज़ेरियन से गुज़रते हुए पुत्र रत्न की प्राप्ति हो गई। चारों ओर खुशी की लहर वयाप्त हो गई। ऑपरेशन के बाद एक दिन डॉ पन्त जी शिष्टाचारवश उसके वार्ड में मिलने गये उस समय उसकी सास पास में कहीं थोड़ी देर के लिए गई हुई थी। पन्त जी ने बिन्नो को पुत्र प्राप्ति की बधाई देते हुए उससे पूछा-
“अब आप ख़ुश हैं? अपनी ज़िन्दगी में और क्या चाहती हैं”
इस प्रश्न का उत्तर देते समय बिन्नो ने अपनी आँखों में उम्मीदों की चमक भर कर अपना दाहिना हाथ पन्त जी की ओर उछाल दिया और अपनी गोरी कलाई पर गुलाबी हथेली और लम्बी उंगलियों से बनी मुट्ठी में हवा क़ैद कर, पन्त जी के चेहरे के सामने उसे लहराते हुए अपनी बन्द मुट्ठी की ओर इशारा करते हुए बोली-
“मैं अपने हसबैंड को इस तरह इसमें बंद करके रखना चाहती हूँ”
जहाँ वो इस चाहत की सफलता की संभावना मात्र से वो पुल्कित होकर खिलखिला उठी थी वहीं डॉ पन्त उसके इस उत्तर से हतप्रभ थे। संसार के तमाम भौतिक सुख साधनों की चाहत से इतर उसकी यह चाहत पन्त जी की उम्मीद से परे और तमाम उन औरतों के जैसी ही लगी जिनके बारे में कहा जाता है कि वो पुरुषों जैसी एक समान नहीं होतीं। उन्हें लगा कि अगर दुनिया के सारे मर्द एक जैसे होते हैं तो उस दृष्टि से औरतें ही कहाँ मर्दों से अलग हैं। उसके इस उत्तर से भीतर कहीं पन्त जी का पुरुष सत्तावादी अहंकार आहत महसूस कर रहा था। पन्त जी ने अपने चेहरे पर एक खिसियाने बिल्ले की सी मुस्कान ओढ़ कर उसकी इक्षा की पूर्ति के लिये सहमति और असहमति के मिश्रित भाव में सिर हिलाते हुए वार्ड से बाहर आ गये।
अगले दिन बिन्नो की अस्पताल से छुट्टी कर दी गई।
बाहर जाते समय आगे-आगे उसकी सास चल रही थी और उसके पीछे-पीछे कुछ क़दमों की दूरी पर गोद में बच्चे को लिये मातृत्व की गरिमा से गौरवान्वित बिन्नो गर्दन तान कर चल रही थी। उस समय पन्त जी की नज़र ने एक विशिष्ट बात देखी कि उनके अस्पताल के मोज़ैक के फर्श पर जहाँ जहाँ सास क़दम रख कर चल रही थी, हूबहू उसी स्थान पर अनुसरण करते बिन्नो के पाँव पड़ रहे थे। वो बिन्नो को एक भावी स्वर्णकार की अम्मा बनने के साथ-साथ एक सास बनने के पथ पर अग्रसर होते हुए देख रहे थे।
4
बिन्नो की मंझली बहन का नाम मन्नो था। वह शादीशुदा थी और अपने दो बच्चों और पति के साथ सुख से रहती थी। जिन दिनों बिन्नो अपनी उच्च खतरे वाली प्रैगनैंसी को पूरा करने के लिए बिस्तर पर टांगे ऊपर किये अधिकतर समय लेट कर आराम करती रहती थी, उन्ही दिनों उसने अपनी सेवा टहल और घर सँभालने में उसकी मदद के लिए अपनी मंझली बहन मन्नो को अपने पास बुलवा किया था। मन्नो भी खूब तन-मन से उसकी और उसके घर परिवार की सेवा में रात-दिन जुटी रहती थी। एक दिन दौड़ भाग करती मन्नो का पैर घर के आंगन में फिसल गया, वो तो ग़नीमत थी कि घर पर रह कर अधिकतर समय उस पर उसके जीजू बब्बू अपनी नज़र गड़ाये रहते थे और मन्नो भी जीजू की इस चोर नज़र से बेख़बर न थी। उसके जीजू की नज़र उस समय भी उस पर थी जब वो गिरी और उसे गिरते देख उन्होंने लपक कर उसको अपनी बांहों में थाम लिया वरना चोट अधिक लग सकती थी, जो अब केवल उसकी एड़ी में मोच बन कर रह गई थी। बब्बू ने उसे गोद में उठा कर पास पड़ी खाट पर बैठा दिया। कुछ देर एड़ी को हल्के से सहलाने के बाद कस कर उस पर गुलाबी पट्टी लपेट दी और कोई दर्द की गोली दे दी। उस दिन हिम्मत करके किसी तरह लंगड़ाते हुए मन्नो ने दिन भर का काम समेटा। रात को लौटते समय जीजू उसके लिए किसी पहलवान का दर्द निवारक तेल ले आये और खुद अपने हाथों से साली जी की बायीं एड़ी की मालिश करी जो मन्नो बड़ी ना-नुकुर के साथ करवाती रही। पहली बार की मालिश से मिले वांछित लाभ को देखते हुए अगले दिन शाम को जीजू ने फिर मालिश कर दी और फिर यह सिलसिला रोज़ के लिये आगे चल निकला। बब्बू रोज़ अपने ठीये से आने के बाद मन्नो की बायीं एड़ी की मालिश करने लगा। कुछ दिनों के बाद तो मन्नो पर इसका इतना अच्छा असर हुआ की अगर किसी दिन जीजू भूल जाते तो मन्नो देर शाम तलक खुद ही अपनी गुलाबी एड़ी पिडलियों तक खोल कर जीजू के आगे-पीछे डोलती रहती थी जब तक उसकी मालिश न हो जाती। बब्बू का हाल भी कुछ इस तरह का हो चला था कि बिना मालिश किये उसे नींद नहीं आती थी। मन्नो को इस मालिश की लत कुछ ऐसी संक्रामक लगी कि उसकी एड़ी का दर्द अब उसकी पिंडलियों से होता हुआ घुटनों से चढ़ कर शरीर के अन्य बड़े जोड़ों को जकड़ता गया। पता नहीं बब्बू की उंगलियों में मालिश का क्या जादू था, ज्यों-ज्यों दवा की मर्ज़ बढ़ता गया वाली कहावत चरितार्थ होती रही। अब इस इलाज को मालिश न कह कर स्पा की संज्ञा देना ज़्यादा उचित होगा। फिर एक शाम बब्बू ने पहलवान का दवाइयों की गन्ध वाला तेल त्याग कर उसके स्पा के लिये कोई खुशबू वाला तेल अपना लिया। एक दिन, देर शाम ढले मन्नो का स्पा करते हुए बब्बू को लगा कि मानों मन्नो का इस मर्ज़ के दर्द से भरा शरीर अंतरिक्ष में आकाश गंगा के मानिंद फैल गया है और वो उसमें स्थित किसी ब्लैक होल में समता जा रहा है, उधर मन्नो को लगा कि जैसे वह एक विशाल धरती की मानिंद फैले जिस्म में किसी विशाल मरुस्थल को पार करती एक लम्बी प्यासी नदी बहती हुई किसी महासागर की अतल गहराइयों में समाती जा रही है। जल्दी ही वो दोनों इस बोध को प्राप्त हो गये कि उन्होंने आनन्द वन (Eden garden) का प्रतिबंधित सेब बिना किसी शर्त के अनायास चखने की ख़ता को अंजाम दे दिया है। फिर इसके बाद तो वे छुप-छुप कर प्रायोजित तरीके से आये दिन ख़ताओं पर ख़तायें बेख़ौफ़ हो कर दोहराने लगे। सतही तौर पर सब कुछ अपनी-अपनी जगह ठीक चल रहा था। आराम करती बिन्नो की प्रग्नेंसी नौ महीने चढ़ कर पूर्ण परिपक्वता को प्राप्त हुई और एक दिन गर्भस्थ शिशु पर आये संकट को ध्यान में रखते हुए उसका सिज़ेरियन ऑपरेशन से लल्ला हुआ और बिन्नो चौथै रोज़ उसे लेकर घर आ गई। ऑपरेशन के बाद आरोग्य लाभ करती बिन्नो को अपनी गृहस्थी पूरी तरह सँभालने में अभी समय लगना था। मन्नो ने नवजात शिशु के साथ उसके पापा जी की भी कुछ अन्य ज़िम्मेदारियों को निभाते हुए घर गृहस्थी सँभाल ली थी। इस तरह ज़िम्मेदारियों का बोझ उठाते हुए मन्नो को कुछ और हफ़्ते गुज़र गये। अब उसका मन अपने दोनों बच्चों के पास जाने का कर रहा था। मन्नो और उसके जीजू के रिश्ते पूर्वत क़ायम थे। दोनों के ही दिलों में अब कुछ ही दिनों में बिछड़ जाने का मलाल पैदा होने लगा था। कहते हैं कि बहुत गहरे पानी में नीचे होती हलचल ऊपर से शांत दिखाई पड़ती है। लाख छुपाओ पर प्यार कभी छुपता नहीं और इस बार मन्नो के जीवन में जीजू से बिछड़ने के मलाल के साथ उनके प्यार के प्रतीक स्वरूप इस समय उसके गर्भाशय में लाल बन कर फलने-फूलने लगा। फलस्वरूप अपनी मंझली बहन की गतिविधियों और उल्टी आदि लक्षणों को देख कर पहले बिन्नो को हल्का शक तो हुआ पर उसने उस समय इसे अनदेखा कर दिया। पर घटना क्रम की सूनामी तब घटी जब एक दिन सुबह-सुबह मन्नो को अचानक गर्भाशय से भारी रक्तस्राव चालू हो गया और आनन-फ़ानन में उसे डॉ पन्त जी के अस्पताल ले जाकर कर भर्ती कराया गया।
डॉ पन्त जी को उक्त मरीज़ा के भर्ती होने का पता तब चला जब दोपहर में अपना ओ.पी.डी. निपटा कर वार्ड के सामने से गुज़र रहे थे तो उन्होंने देखा कि बब्बू अपनी साली मन्नो का सर अपनी गोद में लिए उसके बालों को सहला रहा था और दूसरे हाथ से उसके गालों पर से ढलकते आँसू पोछ रहा था। मन्नो बड़बड़ाती हुई धीरे-धीरे बेहोशी की हालत से बाहर आ रही थी। डॉ पन्त जी को वार्ड का यह दृश्य कुछ अजीब लगा पर वो बिना कुछ कहे घर चले आये। हमेशा की तरह खाने की मेज़ पर मुलाकात के समय डॉ पन्त जी ने अपनी पत्नी डॉ (श्रीमती) पन्त जी से पूछा-
“वो तुम्हारे वार्ड में क्या केस भर्ती है?”
श्रीमती पन्त जी बोलीं-
“हाँ, She came with heavy bleeding in shock, Evacuation done under G A for blighted ovum as per her Ultrasound, has been advised blood transfusion.”
पन्त जी- “तुम्हें पता है, अभी पिछले हफ़्ते जो तुमने सीज़र किया था ये उसकी मंझली बहन है”
श्रीमती पन्त जी-
“हाँ, इसके पहले दो बच्चे मेरे हाथ के हैं। उसके बाद से इसके छ: अबोर्शन्स हो चुके हैं ये सातवां है। She is TORCH test positive. पहले बेचारा इसका पति साथ आया करता था, इस बार अपने जीजा को साथ लेकर आई है”
जिसकी प्रेम कथा के इतिहास (love history) को डॉ पन्त जी ने बड़ी गहराई से दिमाग़ लगा कर खोजा और गढ़ा था, भविष्य में आगे चल कर उसी प्रेम कथा की परिणित कब, कैसे और कहाँ हुई से सम्बन्धित पूरी प्रसूति कथा का इतिहास (obstetrical history) श्रीमती पन्त जी की कनिष्ठा उंगली की अग्रिम पोर पर विद्यमान था। कुछ ऐसी ही बातों को लेकर पन्त जी को अक्सर यह सोच कर निराशा होती थी, कि जहाँ पर जाकर उनकी पुरूष प्रधान सोच का अंत हो जाता है वहाँ से उनकी श्रीमती जी की स्त्री सुलभ सोच का आरंम्भ होता है।
फिर भी सामने रखी प्लेट पर पड़ी नींबू, खीरे, प्याज़, टमाटर की सम्मिलित सलाद पर नींबू निचोड़ते हुए डॉ पन्त जी ने श्रीमती जी की नज़रों में और ऊपर उठ कर सम्मान पाने और अपने अनुभव की धाक जमाने की दृष्टि से कहा-
“लगता है, इस बार ये सारी कारस्तानी उसके साथ आये जीजा जी के द्वारा ही करी धरी है”
यह कह कर उन्हें लगा मानों किसी गम्भीर मसले के रोचक पहलू को उजागर करने के प्रयास में अपनी ज़िन्दगी भर के ज्ञान को सलाद में नींबू की तरह निचोड़ कर उन्होंने श्रीमती जी के सामने प्रस्तुत कर दिया है।
परन्तु पन्त जी की बात में कहीं कोई रोचकता न नज़र आने पर श्रीमती पन्त जी ने नीरस भाव से कहा-
“अक्सर इन परिस्थितियों में ऐसा ही होता है। बेचारी पस्थितियों की शिकार मज़बूर लड़कियों को ही ये सब झेलना पड़ता है”
फिर रोटी के साथ लफ़्ज़ों को चबाते हुए सख़्त लहज़े में पन्त जी की ओर आँखें तरेर कर बोलीं-
“मैं देख रही हूँ कि बूढ़े होने के साथ-साथ, आज कल आपका दिमाग़ ठरकी होता जा रहा है और ऐसी बातों में औरतों की तरह औरतों की तरफ ज़्यादा झुकता जा रहा है”
श्रीमती जी से प्रशस्ति प्राप्ति के बजाय ठरकी बुड्ढे की उपाधि से अपकृत्य होकर पन्त जी की खोजी अक़्ल का पटाक्षेप हो गया। पत्नी के व्यंग्यबाणों से आहत अपनी उदासीनता को छुपा कर उन्होंने मुँह में भरे रोटी के कौर को रबड़ की तरह चबाते हुए उस दिन मायूसी में एक कटोरी दाल भात और अधिक खाया और तृप्त होकर सोने चले गये।
अगले दिन डॉ पन्त जी ने देखा कि उनके कार्य स्थल पर कार्यरत एक मात्र महिला कर्मी जो उनके ओ.पी.डी. के बाहर रिसेप्शन पर बैठने वाली एक बिल्ली जैसी आँखों वाली लड़की थी उसकी ड्यूटी मैडम पन्त जी के आदेशानुसार रिसेप्शन से हटा कर इन डोर वार्ड में डस्टिंग आदि के कार्यों में लगा दी गई है और उसकी जगह अब पन्त जी के पास रिसेप्शन पर एक घोड़े जैसी शक्ल वाले लड़के को मरीजों को दिखवाने में मदद करने के लिए बैठा दिया गया है। पन्त जी जानते थे कि इस विषय में श्रीमती जी से कोई फ़रयाद करना बेकार है। मैडम पन्त जी की नज़र में दुनिया के सारे मर्द एक जैसे होते है और उनके इस विश्वास को किसी तर्क से डिगाना अपनी फ़ज़ीहत मोल लेना था। कल पन्त जी ने खाने की मेज़ पर जो अपने ज्ञान को नींबू की तरह निचोड़ कर रख दिया था ये उसी का नतीज़ा वे भुगत रहे थे।
अगले दिन अपने जीजू बब्बू से मिले एक यूनिट ख़ून को चढ़ा कर मन्नो की अस्पताल से छुट्टी कर दी गई। छुट्टी के उपरांत पत्नी बिन्नो से मिले आदेशों के अनुसार बिना एक मिनट भी रास्ते में कहीं गंवाये बब्बू सीधा मन्नो को अस्पताल से छुट्टी करवा कर उसकी ससुराल में छोड़ आया।
चलते समय दोनों ने हसरत भरी नज़र से एक-दूसरे को जी भर के देखा और ये जानते हुए कि अब ज़िन्दगी में ज़ालिम ज़माने के बनाये रस्मो-रिवाज़ों के ज़ोर के चलते उनका पुनर्मिलन अब कभी उनकी क़िस्मत में नहीं है फिर भी अपने पूर्व मिलन की यादों को स्मृतियों में संजोये वे एक दूसरे से अलग हो गये। शायद इसी का नाम मोहब्बत है।
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कानपुर में घण्टाघर वाले बस अड्डे के किनारे फुटपाथ पर लगी फड़ पर सजी किताबों के बीच छुपी पीले से पन्ने वाली पत्रिकाओं में छप चुकी और वर्तमान में अधिकांश टी.वी. सीरियलों में प्रदर्शित आम कहानियों की तरह पिटी-पिटाई बन्नो की प्रेम कहानी में डॉ पन्त जी को कोई खास रूचि नहीं रह गई थी। जब तक कि एक दिन उसका पति बब्बू अपनी छाती पकड़ कर छटपटाता हुआ उनके सामने आकर स्ट्रेचर पर लेट नहीं गया और उसके पास खड़ी दोनों बहनें बिन्नो, मन्नो, और उसकी अम्मा घबराई और रुआंसी होकर उनसे कहने नहीं लगीं कि डॉ साहब इसको बचा लो। पन्त जी ने उन महिलाओं की बैचैनी और बब्बू की छटपटाहट को ध्यान में रखते हुए उसे भर्ती कर लिया। उसके परीक्षण और ECG समेत कुछ अन्य सामान्य जाँचों की रिपोर्ट्स सही आने के बाद उसकी हालत को और समझने के लिये उन्होंने उन महिलाओं को बब्बू के पास से हटा कर अकेले में उससे कहा- “तुम्हारी सारी रिपोर्ट्स सही हैं, तुम चाहते क्या हो?”
इस पर बब्बू ने आँख खोल कर पहले तो चारों ओर देखा फिर अकेलेपन का अहसास पा कर बोला-
“अरे सर आपको इससे क्या? मेरी माँ के पास बहुत पैसा है, आप तो बस अपना बिल बना कर कमाते जाइये!”
फिर उसने बाहर खड़ी महिलाओं की ओर इशारा करते हुए कहा-
“डॉ साहब इन औरतों ने घर में रहकर मेरा जीना हराम कर दिया है, दिन-भर आपस में लड़ती रहती हैं। मुझे एक मिनट की भी शांति नहीं है। मैं दो-चार दिन यहीं भर्ती रह कर आराम करना चाहता हूँ। जब तक कि इनका लड़ना बन्द नहीं हो जाता। जब तक घर में शांति नहीं छा जाती, मैं घर नहीं जाऊँगा। मुझे आप के यहाँ अस्पताल में अच्छा लगता है”
उसके इस अप्रत्याशित उत्तर से पन्त जी हैरान थे। ऐसा उत्तर आज तक उनको, उनके किसी मरीज़ ने नहीं दिया था। एक बार तो उनका मन किया कि उसे उठा कर चलता करें और बाहर जा कर सबको सच-सच बता दें कि ये मक्कारी कर रहा है। फिर उन्होंने सोचा कि इतनी फीस भर कर वो बड़े विश्वास के साथ उनके पास आया है और जब तक चौबीस घण्टे सही सलामत नहीं बीत जाते निश्चित रूप से उसके सीने के दर्द के बारे में कुछ नहीं कहा जा सकता, चिकित्सा विज्ञान अभी भी अधूरा है, वो 1% ग़लत भी हो सकते हैं, अतः उसे सन्देह का लाभ देते हुए और यह सोच कर कि यदि आज अगर इसकी बात वो नहीं सुनेंगे तो और कौन सुनेगा और यहाँ से भगा दिये जाने के बाद भी वो और कहीं न कहीं जायेगा ज़रूर। अतः यही सब सोचकर पन्त जी ने पास में पड़ी कुर्सी उसके पास खिसकाकर बैठते हुए बड़े प्यार से अपनी आवाज़ में चाशनी घोलते हुए उससे पूछा-
“आख़िर तुम्हारी समस्या क्या है?”
पन्त जी की हमदर्दी पाकर वो भावुक हो उठा और रुंधे गले से इस बार उसने अपनी दुःख भरी कहानी को अतीतावलोकन (flash back ) में जाकर वर्णित करते हुए जो कहा, संक्षिप्त में उसका निष्कर्ष यह था कि पिछली बार जब वह अपनी साली मन्नो के साथ हुई बिना शर्त दो तरफ़ा, सह समर्पण युक्त मानवीय भूल के हादसे के फलस्वरुप हुए अबॉर्शन के बाद उसे ख़ून चढ़वा कर वह अपनी साली मन्नो को उसके घर छोड़ आया था। फिर उसके बाद से ही बब्बू और उसकी पत्नी बिन्नो के बीच रिश्ते अशांत एवम् कलह पूर्ण हो चले थे। एक दिन जब बिन्नो तरबूज़ काट रही थी तब बब्बू ने अपने तनाव पूर्ण रिश्तों की स्थिति नियंत्रण में समझने की ग़लती करते हुए अपने हाथ-पैर जोड़ कर उससे मिन्नतें करते हुए दबे स्वरों में अपने पूर्व में किये कुकृत्य के लिये माफी माँगनी चाही तो उसने तरबूज़ काटना बन्द करके उसी बड़े चाकू की नोक को हवा में लहराते हुए अपने बेटे की ओर इशारा करते हुए बोली-
“अपना मुँह बन्द रखो, अगर तुम इसके बाप नहीं होते तो अब तक यही चाकू तुम्हारे पेट में कब का घुसेड़ चुकी होती!”
अब बब्बू का हाल ये था कि दिन भर वो काम धाम में लगा रहता और रात होते इधर-उधर घूम-घाम कर मूत के सो जाता। इसी तरह कई दिन-रात बीते, एक दिवस की आधी रात को जब बब्बू ने आपसी सम्बन्धों को सुधारने के असफ़ल प्रयास में बिन्नो की ओर पीठ करके (L P – lumber puncture करवाने की मुद्रा में) अपनी कमर को उसके करीब सरकाते हुए ज्यों ही अपने डबल बेड के गद्दों के बीच के जोड़ को पार करते हुए उसके पाले में गया बिन्नो ने मुँह घुमा कर करवट लेकर सोने से पहले पूरी ताक़त से हुसड़ के एक जबर लात बब्बू की पीठ पर दे मारी और चोट खाई सर्पिणी के समान फुंकार के बोली-
“अपनी अम्मा के पास जा, माँ के लौंडे”
यह कहते समय उसके द्वारा उच्चारित शब्द “लौंडे” के ध्वन्यात्मक शब्दार्थ में “ड” के नीचे लगी बिंदी से बन गये ‘ड़’ में छुपी घृणा के निहितार्थ को स्पष्ट रूप से झेलते हुए, गरियाती पत्नी के सामने निर्लज्जता से आत्म समर्पण करने और शेष जीवनपर्यंत, मरते दम तक एक अपमानित, तिरिस्कृत, लतखोर का जीवन भुगतने के सिवाय बब्बू के पास और कोई विकल्प नहीं बचा था। उसकी माँ समझती थी कि वो अपनी पत्नी बिन्नो की उंगलियों के इशारे पर नाचता है जब कि बिन्नो की नज़र में जो पहले कभी उसका जानू, स्वीटू, बेबी, बाबू, शोना हुआ करता था वही बब्बू पत्नी की नज़र में अब इस अनुच्छेद की पूर्वोक्त पंक्तियों में की गई व्याख्या से कुसज्जित “माँ का लौंडा” बन कर रह गया था। इन्हीं सब परिस्थितियों के चलते बेटे के जन्म के बाद से बिन्नो का ध्यान बब्बू की तरफ से और भी हट गया था तथा उसकी जगह बेटे के प्रति माँ की ममता ने ले ली थी। बब्बू एक तरह से अपनी ही सन्तति के प्रतिद्वंदी (Offspring rivalry) की दुर्भावना से ग्रस्त बिन्नो का भूतपूर्व प्रेमी और वर्तमान में छरछंद, कपटी छलिया प्रियतम मात्र बन कर रह गया था।
उत्तरोतर बढ़ती बब्बू की जोरू के प्रति ग़ुलामी और उसकी अम्मा की उसकी जोरू के ऊपर बढ़ते ज़ुल्मी शासन की कहानी के चलते घटना वाले दिन उनके गृह क्लेश की पराकाष्ठा पार कर गई जब एक मामूली सी बात पर बिन्नो की सास ने महज़ अपनी अहमतुष्टि के लिये रसोई में जलते चूल्हे पर चढ़ी गर्म कड़ाई उतार कर ज़मीन पर यह कहते हुए पटक दी कि हज़ार बार पटरानी जी को मना किया है कि बड़ा बर्तन आग पर न चढ़ाया कर, बड़ा बर्तन ज़्यादा गैस खाता है पर मेरी बात न मानने की जैसे इसने क़सम खा रखी है। पता नहीं यह बिन्नो के बग़ावती तेवर का नतीज़ा था या फिर वो गर्म कढ़ाई वाकई में उसके पैर पर गिरी थी जिसके कारण बिन्नो की दर्दनाक ह्रदय विदारक चीख़, कढ़ाई के गिरने की आवाज़ से उत्पन्न ज़ोर की झँन्न की आवाज़ से मिल कर और भी भयावह और गुंजायमान हो गई जिसे सुन कर बब्बू सदमें में आकर बीच आँगन में धड़ाम से गिर पड़ा। बब्बू को गिरा देख झटपट सब जगह फोन करते हुए वे लोग बब्बू को उठा कर पन्त जी के अस्पताल ले आयीं। जो अब पन्त जी के सामने लेट कर अपनी आप बीती का बखान कर रहा था।
पन्त जी ने पूछा- “तुम्हारी माँ, तुम्हारे और मन्नो के सम्बन्धों के बारे में कुछ नहीं कहतीं हैं?”
बब्बू- “उन्हें इसका पता ही तब चला जब सारा खेल हो चुका था। सर जी, उनकी नज़र में तो मैं सदैव एक भोला-भला, सीधा-साधा बेटा हूँ जिसे इन दोनों चुड़ैल बहनों ने अपनी शातिर चालों में फंसाया हुआ है। सर जी आप तो जानते हैं कि सदा से पुत्र भले की कुपुत्र हो जाये पर माता कुमाता नहीं हो सकती है”
डॉ पन्त- “मन्नो और बिन्नो आपस में तुमको लेकर कभी लड़ती नहीं हैं?”
बब्बू- “बिल्कुल नहीं, कभी भी नहीं, बल्कि मुझे लगता है कि अब उनके आपसी सम्बन्ध पहले से अधिक प्रगाढ़ हो गये हैं। दोनों आपस में खूब हँसती बोलती हैं, साथ-साथ घूमती-फिरती हैं, सिनेमा देखने जातीं हैं, माल में शॉपिंग करने जाती हैं, चाट वाले की दुकान पर खड़ी होकर आलू की टिक्की एक ही दोना पत्तल में उंगलियाँ घुसेड़-घुसेड़ कर चाट को चटखारे लेकर, चाट-चाट कर खातीं हैं। ये तो बचपन से ही एक ही इमली की टॉफी को आपस में मिल-बाँट कर मुँह से निकाल-निकाल कर बारी-बारी से चूसती-चाटती आईं हैं। अरे सर, कभी कहीं जाने की जल्दी हो तो ये दोनों बहनें एक ही कमरे में अंदर से बंद होकर कपड़े बदल कर चल देतीं हैं। चाहे मेरा दोहन हो या किसी अन्य मसले पर, इनकी आपसी मन्त्रणा से तैयार इनकी अजय रणनीति को कोई हरा नहीं सकता है। ले दे कर इन दोनों के बीच में, मैं ही पिस रहा हूँ।”
पन्त जी के यह पूछने पर कि मन्नो ने तुमसे कभी शादी करने को नहीं कहा तो बब्बू ने बताया कि एक बार जब वे लोग मोटर साइकिल से कहीं जा रहे थे और मन्नो उसके पीछे बैठी थी। वो एक खाली सड़क थी जिस पर भरी दोपहर में क़तार से खड़े गुलमोहर और अमलताश के ऊँचे पेड़ों पर लदे लाल और पीले फूलों की ठंडी छाँव तले वे चले जा रहे थे। मन्नो का एक हाथ उसके कंधे पर था तभी सामने एक गड्ढा आ गया और अचानक लगे तेज़ ब्रेक के कारण मन्नो का सन्तुलन बिगड़ कर बब्बू के कंधे का सहारा उसके हाथ से फिसल गया और एक झटके के साथ टकराते हुए उसके सीने का पूरा गुरुत्वाकर्षण बल उसके आवेग बल से कम हो गया फलस्वरूप उस भार को उसने बब्बू की पीठ पर टिका दिया। ये तो उसके पुष्ट आघात अवशोषक ऊतकों का कमाल था कि इतने ज़ोरदार झटके के बाद भी किसी को चोट नहीं आई। उसी झटके की झोंक में अब कुछ और आगे झुक कर मन्नो ने अपना सिर भी बब्बू के कांधे पर टिका दिया। उसी स्थिति में सधे हुए कुछ और छोटे-मोटे गड्ढ़ों के झटकों की परवाह किये बग़ैर, थमी साँसों और धड़कते दिल से उस सीट पर यथावत मुद्रा बनाये रखते हुए उन दोनों ने बाक़ी का सफ़र पूरा किया। फिर उस दिन उनके गन्तव्य स्थान, एक मोड़ पर मोटर साइकिल रुकने पर, बब्बू की पीठ पर से अपना भार अलग कर सीट पर से सरक कर उतरते हुए पाँव पटक कर बब्बू का मुँह ताकते हुए और अपने होठों पर चमकती हल्की पसीने की बूँदों को अपने दुपट्टे के छोर से पोंछते हुए उसके बोल थे-
“मैं चाहती हूँ कि मैं रुक्मणी बन जाऊँ और आप मेरा अपहरण कर लें”
पन्त जी- “तो तुम मन्नो से शादी करके घर क्यों नहीं ले आते ?”
बब्बू- “यहीं तो आफ़त है, बिन्नो कहती है कि इस घर में पत्नी बन कर दोनों में से एक ही रहेगी अगर मन्नो इस घर में ब्याह के आई तो वो हमारा बच्चा छोड़ के कहीं भाग जायेगी या दुनिया में कहीं भी रह कर ज़िन्दगी काट लेगी और उसकी इस शर्त के अनुसार यदि मैं मन्नो को ब्याह के घर ले आया तो मन्नो के दो बच्चे और तीसरा मेरे बेटे को मिला कर भारी खर्च होगा जिसे मैं वहन न कर सकूँगा। फिर मैं अपनी पत्नी बिन्नो से अलग नहीं होना चाहता हूँ, वो मेरा पहली नज़र का पहला प्यार है, इसीलिये जब-जब मैं उससे पूछता हूँ कि हम दोनों के बीच का ये अलगाव कब तक चलेगा वो कहती है कि मेरी अगली प्रेग्नेंसी तक। अब आप ही बताइये कि भला इस बात का कुछ मतलब है और अगर है भी तो ये मेरे बिना कैसे संभव है। सोचता हूँ जैसे चल रहा है, जब तक चलेगा, चलाउँगा।”
पन्त जी- “अच्छा, तो तुमको लेकर मन्नो, बिन्नो से तकरार नहीं करती?”
बब्बू- “बिल्कुल नहीं, मेरी साली मन्नो के मन में मुझे लेकर बिन्नो से कोई ईर्ष्या द्वेष भाव नहीं है, वो मानती है कि सर्वप्रथम आधिकारिक रूप से मेरे ऊपर उसकी बहन बिन्नो का ही अधिकार है, मैं केवल उसी का पति हूँ पर अपने दिल से मज़बूर वो मुझसे एक सच्चे निश्छल निःस्वार्थ समर्पण भाव से प्रेम करती है।”
पन्त जी- “और बिन्नो?”
बब्बू- “बिन्नो, प्रेम में अधिकार भाव का मान जताती है और इसे पाने के लिये मुझसे लड़ती है।”
पन्त जी- “सिर्फ़ तुम्हें लेकर तुम्हारी पत्नी बिन्नो कभी अपनी बहन मन्नो से लड़ती नहीं है?”
बब्बू- “नहीं सर, वो कहती है तुम्हारी वज़ह से मैं अपनी बहन से रिश्ते क्यूँ खराब करूँ! बस मेरे ऊपर ही धौंस जमाती है।”
पन्त जी- “अच्छा, आख़िर में ये बताओ कि मन्नो के पति को तुम्हारे और उसकी पत्नी के बीच के इस रिश्ते की जानकारी है?”
बब्बू- “सर जी, वो बहुत ही सीधा-साधा आदमी है। हम दोनों को लेकर उसके मन में कुछ शक ज़रूर है पर वो मन्नो के छह अबोर्शन्स के बीच डॉक्टरों के यहाँ लाइन लगा-लगा के थक गया है, वो अपनी पत्नी से तंग आ चुका है और उसने अब उससे बोलना तक छोड़ दिया है। अभी मन्नो के सातवें अबॉर्शन और खून चढ़वाने का सारा खर्च मैंने ही उठाया है, जिसका उसे अंदाज़ा भी नहीं है। वो तो मन्नो को एक बला समझ कर उससे दूर-दूर ही रहना चाहता है। हो सकता है उसका मन्नो के प्रति ये उदासीन रवय्या ही मन्नो का मेरी नज़दीकियों में आने का एक कारण रहा हो।”
बब्बू ज़माने की नज़र में अब एक बाप बन गया था, पर था वो अपनी माँ की नज़रों में एक जोरू का ग़ुलाम, पत्नी की नज़रों में एक माँ का लौंडा, साली की जान में जीजू जानू और अपनी पत्नी को धोखा देकर, अपनी साली मन्नो को पटाने के बाद से बब्बू ख़ुद अपनी घमंडी नज़रों में एक रसिक, स्त्री सम्मोहक, चतुर चालक सफ़ल औरत मार इश्क़िया मर्द बन गया था, पर डॉ पन्त जी की नज़रों में कुल मिला कर वो एक चूतिया था जिसके आगे किसी विशेषण को लगाना उसके चूतियापे का अपमान करना था।
वो नहीं जानता था कि प्रश्न यह नहीं है कि ज़िन्दगी में किसी ने कितनी अधिक संख्या में कितनी स्त्रियों को प्यार किया है बल्क़ि महत्वपूर्ण यह है कि एक ही ज़िन्दगी में किसी ने कितनी गहराई से एक ही स्त्री को प्यार किया है।
बब्बू की जटिल ज़िन्दगी की उलझी कहानी सुन कर डॉ पन्त जी उसके वार्ड से निकल कर अस्पताल के बाहर आ कर ताज़ी खुली हवा में खड़े हो गये जहाँ उनके सामने सड़क के पार फुटपाथ पर अपने कमल के पुष्प के समान होंठों पर गुलाबी लिपिस्टिक लगाये, अपनी मटर की फली में दाने जैसी स्थित पलकों के बीच कंजी गोल आँखों में काजल सुरमा लगाये, गले में सफ़ेद मोतियों की माला पहने, सुनहरी भूरे बालों वाली एक फ़टी जीन्स और टॉप पहने जो मटक-मटक कर नाच रही थी उसकी गर्दन पर बंधी डोर उस मदारी के हाथों में थी जो उन बन्दरों का खेल दिखा रहा था। उसके दाहिनी ओर लकड़ी के गोल गुटके पर एक बंदर अपनी तशरीफ़ टिकाये बैठा था और अपने गले में टँगी ढपली को अपने दोनों पंजों से दे-धप्प- धपा-धप्प बजाए पड़ा था और वो बन्दरिया उसकी लय और ताल पर अपने क़दमों की थाप दे देकर थिरक रही थी। उन दोनों की डोर भले ही मदारी के हाथ में थी पर उस समय ज़िन्दगी की जिस धुन में मगन वो नृत्य में लीन थे वो उनकी अपनी बनाई हुई थी। आस-पास जुटी लोगों की भीड़ आनन्द मग्न होकर ताली बजा-बजा कर उनका स्वागत कर रही थी।
पन्त जी का मन हुआ कि बब्बू को बाहर बुला कर उस बन्दरिया का नाच दिखाये जिससे उसका मन कुछ हल्का हो और वो इस बन्दर से कुछ प्रेरणा लेकर बन्दरिया नचाने के गुर सीखे सके। फिर पन्त जी ने सोचा कि हर किसी को ये बन्दरिया नचाना भी तो नहीं आता और न ही यह कला किसी को सिखलायी जा सकती है।
6
बरामदे तक घुस आई सुबह की गुनगुनी धूप सरक कर आँगन के बीच में आकर पसर गई थी जहाँ खाट पर पाँव लटका कर बैठी बिन्नो घुटनों पर एक थाली में रखे चावल बीन रही थी। बीच-बीच में बिन्नो चावलों के कंकड़ बीन कर फेंकने के बहाने एक चुटकी चावल थाली से लेकर आँगन में छिड़क देती थी, जहाँ उसके क़रीब फ़र्श पर कुछ गौरइयाँ चिड़ियाँ उन दानों को चुग रहीं थी। थोड़ी देर उनको दाना चुगा कर बिन्नो उठकर खड़ी हो गई, उसकी इस हलचल के साथ चिड़ियाँ भी फुर्र से उड़ कर मुंडेर पर बैठ गयीं और वहाँ से आसमान में उड़ गयीं। बिन्नो बीच आँगन में खड़े-खड़े निर्लिप्त भाव से चिड़ियों का उन्मुक्त गगन में विलुप्त होना देखती रही। फिर वो चावल की थाली लिये सधे कदमों से खाना बनाने रसोई घर में चली गयी। आज वो सुबह से ही जल्दी उठ कर तैयार हो गई थी। आज विधिवत उसने कई स्वादिष्ट व्यंजन पकाये फिर एक थाली और पाँच कटोरियों में दाल, विभिन्न सब्ज़ियाँ, रोटी, चावल और खीर आदि सजा कर बरामदे में बैठी सास को एक गिलास पानी के साथ परोस कर खाने के लिये दे आयी। फिर वो मुड़ी और पहले से एक खूंटी पर टँगे अपने छोटे बैग को उतारकर कर कंधे पर लटकाया, कोने में रखी चप्पलें पहनीं फिर आँगन पार करते हुए एक परित्यक्ता की भाँति निर्वाह्युक्त जीवन से निर्वासित होकर ससुराल की देहरी लाँघ कर आज स्वयं को अपनी सास के अधिकारों और उसके प्रति अपने कर्तव्यों पति एवं परिवार के बंधनों से मुक्त होकर उन्मुक्त जगत में जीने की लालसा लिए जिस पथ पर उसके पाँव चल पड़े थे उस पर चलने का निर्णय तो उसने उसी दिन ले लिया था जिस दिन उसकी सास के पाँव पकड़ कर रोते बिलखते मन्नो के पति को उसने अपने कमरे की खिड़की से देख लिया था। फिर उसके जाने के बाद बिन्नो ने अपनी सास को स्वागत स्वरों में भुनभुनाते कर ये कहते सुना था-
“मैं क्या कर सकती हूँ जब उससे खुद अपनी बहू ही नहीं सँभलती।”
उसी दिन बन्नो ने आले में रखी पति बब्बू की ओर से प्रस्तावित बहुप्रतीक्षित आपसी समझौते पर आधारित तलाक़ की अर्ज़ी पर दस्तख़त कर अपनी सहमति दे दी थी, आज तो उसकी महज़ खानापूर्ति कर कार्यवाही को अंजाम दे रही थी। जिस समय घर से निकलकर उसके बढ़ते क़दमों ने चप्पलों को बाहर उतार अहंकार को त्यागकर मदर टेरेसा के आश्रम में प्रवेश किया, लगभग उसी समय उधर उसकी छूटी ससुराल में आर्य समाज मन्दिर में बब्बू से विवाह रचा कर अपने दो बच्चों के साथ उसकी बहन मन्नो के क़दमों ने जूता चप्पल समेत बब्बू के हृदय पर विराजमान, साम्राज्ञी बनी मन्नो ने उसकी ससुराल के गृह में प्रवेश कर क़ब्ज़ा जमा लिया। इस पूर्व निर्धारित क़दमों की योजना से बिन्नो अनभिज्ञ न थी। उसको सबसे बड़ा भय, अपने बेटे की देखभाल को लेकर था जो अब बारह साल का हो चुका था और जो कि अपनी मौसी मन्नो से काफी हिलगा हुआ था उसको को लेकर वह निश्चिंत थी।
आरंम्भ से ही सास के साम्राज्य के एकाधिकार को ध्वस्त करती नवेली वधू मन्नो की गतिविधियाँ सास औऱ उसके बेटे बब्बू के सर पर चढ़ कर बोल रहीं थीं। नित दिन चढ़े देर से उठना फिर घण्टों सजने संवरने से ही मन्नो को फ़ुर्सत नहीं मिलती थी। घर के चूल्हे-चक्की से दूर रह कर सास की जमी जमाई गृहस्थी को उधेड़ने में मन्नो को एक हफ़्ता भी न लगा। सास बेचारी कुढ़न की मारी जैसे-तैसे अपनी ज़िंदगी के दिन गिन-गिन कर काटने लगी। कभी-कभी तो ऐसा प्रतीत होता था मानो बब्बू की अम्मा द्वारा अपनी बहन पर हुए अत्याचार का बदला लेने के लिये ही उसने ये ब्याह रचाया था। मन्नो के आने से उत्पन्न कठोर परिस्थितियाँ न सहन कर पाने के कारण एक दिन बब्बू की अम्मा अपना सामान बाँध कर अपने भाई के यहाँ रहने चली गयी।
अगर ज़िंदगी में अपनी अम्मा के नये ब्याह के बदले में मिले नये बाप के राज्य में जीने की हर तरह की आज़ादी और घी दूध रबड़ी मलाई पेलने को न मिले तो लानत है ऐसे अपनी अम्मा के नये दूल्हा पर, सो बब्बू ने भी अपने लहेड़ों (प्रेमिका के लड़कों) पर अपनी तिजोरी न्योछावर कर दी, फलस्वरूप वे दोनों और बिगड़ैल और उद्दण्ड हो गये। मन्नो के भाग्य से कहें या बब्बू के पुरूषार्थ के चलते जिस दुकान के चबूतरे पर बब्बू बैठ कर स्वर्णाभूषणों पर कारीगरी का काम किया करता था उसका मालिक अपने निजी पारिवारिक कारणों से अपना व्यापार समेट कर दुकान बब्बू को सौंप कर अन्यत्र चला गया जिसमें बब्बू ने सुनार की दुकान खोल कर अपना धंधा आगे बढ़ा दिया। जैसे-जैसे बब्बू की दुकान की आमदनी बढ़ती गयी उसके आंतरिक, घरेलू जीवन में कलह उसी अनुपात में बढ़ता गया। कभी-कभी उसे लगता था था कि मन्नो ने उससे विवाह अपने और अपने बच्चों के जीवन की ख़ुशहाली के लिये किया था जिसमें उसके प्यार के लिये मन्नो के पास कोई जगह नहीं थी। इसी तरह पलते बढ़ते बच्चे संस्कारगत रुझानों एवम् प्रारब्ध के अनुरूप अपने परिश्रम का फल प्राप्त कर अपना भविष्य निर्धारण में लगे रहे और मन्नो के बच्चे उसके सुनारों वाले व्यवसाय से जुड़ी कारीगरी और दुकानदारी आदि में लग गये। ऐशो-आराम की तलबगार मन्नो कुछ ही सालों में मधुमेह जनित जटिलताओं में घिर डॉ पन्त जी के यहाँ फिर चक्कर काटने लगी और इस प्रकार उसके पूर्व पति की भाँति बब्बू फिर मन्नो को लेकर डॉक्टरों के चक्कर काटने लगा। आये दिन मन्नो के बच्चों का बिन्नो के लड़के से झगड़ा बचाने के लिए बब्बू ने बिन्नो के लड़के को दूर घोड़ा खाल के सैनिक स्कूल में डाल दिया जहाँ से कुछ सालों बाद वह NDA में चयनित हो गया।
आश्रम की अनुशासित दिनचर्चा में घड़ी की सुइयों की टक-टक पर टिकी ज़िंदगी में छलांगें मारता समय कब लगभग एक दशक की सीमा लाँघ गया पता नहीं चला। एक दिन किसी विस्तृत शांत झील के गतिहीन तल पर गिरे किसी पुष्प से उत्पन्न पानी की तरंगों के समान मन्नो के जीवन में खुशी की उमंगे उपजाता एक निमन्त्रण पत्र प्राप्त हुआ जिसमें देहरादून स्थित भारतीय सैन्य अकादमी में अंतिम पग पार कर भारतीय सेना में बतौर अधिकारी शामिल होने वाले कैडेट्स के समारोह में उसे आमंत्रित किया गया था।
उस गौरवपूर्ण क्षण की गवाह बनी पुल्कित बिन्नो उस पासिंग आउट परेड के प्रदर्शन में अपने पुत्र को देख कर अभिमान से से फूली नहीं समाई। कहते हैं सब दिन एक समान नहीं रहते, देहरादून में समारोह की समाप्ति के बाद उसका बेटा उसे अपने गृह जनपद में स्थित मदर टेरेसा के आश्रम से विदा कराके अपने साथ आसाम लेकर चला गया, जहाँ उसने सैन्य परिवार कल्याण योजना के आधीन चल रहे एक प्रशिक्षण संस्थान में अपना सहयोग देते हुए एक नये जीवन का शुभारंभ कर दिया।
7
दशक बीते, ढलती उम्र के साथ बढ़ती उनके कभी न ठीक होने वाले मरीज़ों की संख्या के बीच डॉ पन्त जी का जीवन एक संकुचित पड़ाव पर आकर टिक गया था। उस दिन डॉ पन्त जी के सामने दिखाने के लिये उनके कक्ष के अंदर मरीज़ बन कर आया अगला मरीज़ उनके करीब पड़े चकरी स्टूल पर आ कर बैठ गया। वह एक मोटा थुल-थुल लगभग बहत्तर वर्षीय बूढ़ा व्यक्ति अपनी खुली पतली टांगों के ऊपर मटके जैसे पेट पर बरमूडा कच्छा और एक रंगीन फूलछाप टी शर्ट पहन कर आया था। उसके चेहरे और दोहरी ठोड़ी पर लटक रही मोटी चर्बी युक्त खाल पर हल्की बढ़ी दाढ़ी और उसकी पकौड़े जैसी नाक पर चढ़े मोटे लेंस के चश्मे से किसी मेंढक की तरह उसकी आंखें उभर कर बाहर निकलती दिखाई पड़ रही थीं। उसने अपने बाएँ हाथ को उठा कर अपने गंजे सर के पीछे ले जाकर वहाँ स्थित गुद्दी पर सिमट आई बालों की रेखा को एक अदा से सहलाते हुए अपने मोटे होंठों को फैलाकर किसी मगरमच्छ के जैसी भद्दी मुस्कुराहट के साथ नथुने फुलाते हुए अपनी भारी भरकम आवाज़ में कहा-
“पहचाना?”
दिमाग पर ज़ोर डालने पर पन्त जी को काफ़ी अर्से बाद आये उस व्यक्ति की शक्ल जानी पहचानी लगी। तभी उनकी शंका का निवारण करते हुए वो खुद ही बोल उठा-
“मैं, बब्बू हूँ, मेरी वाइफ मन्नो का इलाज आपसे चलता था! वो तो दो साल पहले नहीं रही, सुगर थी उसे, आपने भी काफ़ी समय तक उसका इलाज किया था। फिर बाद में मैं उसे दिल्ली ले गया पर कोई फ़ायदा नहीं हुआ।”
पन्त जी ने उसकी जिंदगी में बिन्नो से बिछड़ने पर और उसकी बताई पहचान को स्वीकार करते हुए एक खेद मिश्रित अपनी चिरपरिचित व्यवसायिक मुस्कान से उसकी आवभगत प्रदर्शित करते हुए पूछा-
“कैसे हैं? ”
वह बोला- “डॉ साहब आज मैं एक ख़ास काम के लिए और आपकी सलाह लेने आया हूँ”
पन्त जी- “कहिये”
बब्बू “मन्नो के जाने के बाद अब मन नहीं लगता, मैं चाहता हूँ कि शादी कर लूँ। इस बारे में आप की क्या राय है?”
पन्त जी- “इसमें मैं आपकी क्या मदद कर सकता हूँ, कोई है नज़र में?”
बब्बू ने रहस्यमयी तरीक़े से आगे झुकते हुए धीरे से कहा-
“सर जी, उनमें से एक तो साथ आई है, बाहर बैठी है। पहले वो मेरे यहाँ घर के छोटे-मोटे काम, बर्तन धोने, खाना बनाने के लिये आती थी। जब से मैंने उसकी तनख्वाह बढ़ा दी है तब से वो मेरे सब काम करती है, अभी मैंने उसकी लड़की की शादी में स्कूटर दिया है। बड़ी भली औरत है। मैं जब तक चाहूँ रुकी रहती है।”
पन्त जी- “तो क्या इसी से शादी करेंगे”
बब्बू- “नहीं, ये तो मेरी काम वाली कम्मो है, वो तो कोई दूसरी औरत है जिसका नाम छम्मों है”
पन्त जी ने “इसका मतलब, तो आप…..”
कह कर कुछ कहना चाहा तो वो उन्हें बीच में रोक कर बोला “वैसे मैं बिल्कुल फिट हूँ, अभी मेरे दोस्त ने इसी बात की टेस्टिंग के लिये एक औरत भेजी थी।”
फिर आत्मविश्वास से उसने एक गहरी साँस भर कर उसकी हवा बाहर निकालते हुए फुँकार मार कर अपना सर सहमति में हिलाते हुए कहा-
“आप इसकी चिंता न करें, मैं बिल्कुल फिट हूँ”
एक से एक गन्दगी में सने मरीज़ों के परीक्षण और सड़ी गली लाशों के पोस्टमॉर्टम करवाने के अभ्यस्त पन्त जी को उसकी बातें सुन कर उबकाई सी आने लगी, उन्होंने अपने छूटते धैर्य पर नियंत्रण रखते हुए फिर अपना प्रश्न दोहराया-
“तो इसमें मैं क्या कर सकता हूँ”
बब्बू हाथ जोड़ते हुए बोला-
“आप से प्रार्थना है, आप मुझे कोई बीमारी दिखाते हुए अस्पताल में भर्ती कर लीजिये। मैं अकेला हूँ। भर्ती की ख़बर सुन कर शायद मेरी बहन या कोई और क़रीबी मुझे देखने आएँगे तब आगे की बात मैं सँभाल लूँगा।”
पन्त जी ने उसकी चाहत और मन्नो की ग़ैर मौजूदगी में उसके मन न लगने के उपाय से स्थापित सम्बन्धों और साधनों की भौतिकता का आंकलन करते हुए कहा-
“इसका मतलब आप जानते हैं, जो आयेगी वह आप की सारी सम्पत्ति की अधिकारिणी हो जायेगी”
बब्बू- “उसकी मुझे कोई चिंता नहीं है, मुझे जिसको जो देना था दे दिया। मैंने अब दुकान पर जाना बंद कर दिया है जिसे अब मन्नो के लड़के सँभालते हैं और वो शादी कर के मुझसे अलग रहते हैं। अब जो बचा उसे कोई ले जाये। आप तो मुझे भर्ती कर लीजिये बाक़ी मुझ पर छोड़ दीजिये।”
पन्त जी को याद आया वो कई वर्ष पहले भी एक बार इसी तरह भर्ती रह चुका है। अतः उसकी ज़िद्द देखते हुए और यह सोच कर कि इससे पहले वो कोई और नाटक करे उन्होंने उसे उसकी अवस्था में होने वाली बीमारियों के खतरों की जाँच एवं उनके मूल्यांकन हेतु निगरानी में रखते हुए उसे भर्ती कर लिया।
ओ.पी.डी. समाप्त कर दोपहर में जब पन्त जी भर्ती बब्बू के बिस्तर के पास से गुज़रे तो उन्होंने ने देखा कि उसके पास बैठी एक अधेड़ महिला जिसका नाम बब्बू ने कम्मो बताया था, एक प्लास्टिक की टोकरी में से खाना निकाल के बब्बू को खिला रही थी। उसके गठे बदन और सस्ते श्रंगार की लीपा पोती और पास बैठ कर खिलाने की मुद्रा एवं हाव भावों से उसके और बब्बू के भौतिक और आत्मिक सम्बन्धों की गहराई का अंदाज़ा लगाना उन लोगों के लिये मुश्किल हो सकता था जो ठरकी बब्बू की पृष्ठभूमि से अपरिचित थे न कि डॉ पन्त जी। डॉ पन्त उस बिस्तर के पास चल रही गतिविधियों को अनदेखा करते हुए आगे बड़ गये।
शाम को बब्बू को देखने कुछ महिलाएँ और दो पुरुष आये। फिर वो डॉ पन्त जी से मिले। उन्होंने बब्बू की बीमारों से ज़्यादा अस्पताल से उसे घर ले जाने में रुचि दिखाई। पन्त जी को इस स्थिति का पहले से इंतज़ार था। पन्त जी की सहमति पाकर छुट्टी का पर्चा लिए बिना ही जल्दी-जल्दी में वे उसे लेकर चले गये। डॉ पन्त कुछ क़दम तक चल कर उनको रवाना करने के लिये अपने कक्ष से बाहर आ गये। बब्बू ने ज़रा ठिठक कर अपनी गर्दन चारों ओर घुमा कर देखा। पन्त जी पर दृष्टि पड़ते ही उसने कृतज्ञता दर्शाते हुए निर्लज्ज भाव से अपने दोनों हाथ जोड़ कर पन्त जी को प्रणाम किया। जाते समय उनके समूह में आगे-आगे बब्बू छम्मों से शादी रचाने की उत्कंठा लिये चल रहा था उसके पीछे बाक़ी लोग थे और उन सबके पीछे कम्मो प्लास्टिक की डोलची में टिफ़िन, पानी की बोतल, तौलिया आदि लिये चल रही थी। बब्बू अब तक अपने जीवन के बहत्तर बसन्त काट चुका था। मन्नो और बिन्नो उसके जीवन में अपनी भूमिका निभा कर जा चुकीं थीं और कम्मो-छम्मों धमाल मचाये थीं।
अपने जीवन में सुख और साथी की लालसा लिये उसकी स्त्रियाँ बदलती तलाश बिन्नो, मन्नो, कम्मो से होती हुई अब छम्मों के लिये जारी थी और कौन जाने अभी कितनी बेबो, बब्बो और शब्बो को उसकी अंतहीन वासना का शिकार बनना बाक़ी बचा था। अब कौन उसे इस ज्ञान का अहसास कराता-
कि प्रश्न यह नहीं है कि ज़िन्दगी में आपने कितनी अधिक संख्या में कितनी स्त्रियों को प्यार किया है बल्कि महत्वपूर्ण यह है कि एक ही ज़िन्दगी में आपने कितनी गहराई से एक ही स्त्री को प्यार किया है। .
The question is not that with how many number of women you made love in your life,
Important is how deeply you loved a single women in your life.
OSHO