बन्धनहीन जीवन :……
बन्धनहीन जीवन :……
क्यों हम
अपने दु :ख को
विभक्त नहीं कर सकते ?
क्यों हम
कामनाओं की झील में
स्वयं को लीन कर
जीवित रहना चाहते हैं ?
क्यों
यथार्थ के शूल
हमारे पाँव को नहीं सुहाते ?
शायद
हम स्वप्न लोक के यथार्थ से
अनभिज्ञ रहना चाहते हैं ।
एक आदत सी हो गई है
मुदित नयन में
जीने की ।
अन्धकार की चकाचौंध को
अपनी सोच की हाला में
मिला कर पीने की ।
व्याकुलताओं को
खोखली हंसी के लिबास में छुपाकर
उन्मुक्त उन्माद में जीने की ।
शायद
यही है शैली
आज के
बन्धनहीन जीवन को
जीने की ।
सुशील सरना /