बनारस हिंदू विश्वविद्यालय में काशी छात्र परिषद का गठन
बनारस हिंदू विश्वविद्यालय में काशी छात्र परिषद का गठन
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रामपुर से बीएससी करने के बाद जब मैं 1979 -1980 में एलएलबी करने के लिए बनारस हिंदू विश्वविद्यालय गया तो वहाँ मुझे डॉक्टर भगवान दास छात्रावास कमरा नंबर 42 मिला । पूरी पढ़ाई के दौरान यही हॉस्टल तथा यही कमरा मेरे पास रहा । बहुत जल्दी ही मैंने यह महसूस किया कि छात्रावास में पत्र-पत्रिकाओं के अध्ययन कक्ष की कमी है। स्थान तो है , लेकिन उसका सदुपयोग नहीं हो पा रहा है । मैंने एक पत्र अपने वार्डन श्री वी.पी. मगोत्रा जी को दिया और उनसे अनुरोध किया कि छात्रावास में प्रवेश करते ही दाहिने हाथ को जो कमरा है और जिस का सदुपयोग नहीं हो पा रहा है, उसे पत्र-पत्रिकाओं के “अध्ययन कक्ष” के तौर पर चलाने की मुझे अनुमति देने का कष्ट करें। इस कार्य के लिए मैंने एक संस्था बनाई उसका नाम “काशी छात्र परिषद” रखा ।उसका संयोजक मैं स्वयं बना । हॉस्टल में रहने वाले अन्य विद्यार्थियों का सहयोग भी मिलने लगा। वार्डन महोदय ने बिना देर किए पत्र लिखकर मुझे अध्ययन कक्ष चलाने की अनुमति दे दी थी।
“अध्ययन कक्ष” में लगभग एक घंटा मैं अखबारों के साथ बैठता था। मुझे भी अखबार पढ़ने के लिए कोई जगह चाहिए थी। बजाय इसके कि मैं अपने कमरे में बैठकर अखबार पढ़ता या इधर-उधर पढ़ता, मुझे अध्ययन कक्ष में बैठकर पढ़ना अच्छा लगा। वास्तव में इन कामों में कोई खास खर्च नहीं हो रहा था । हां ! एक जिम्मेदारी जरूर हो गई थी । लेकिन वह भी केवल एक घंटे की । और उसमें भी अगर कोई जरूरी काम निकल आता था तो मैं अध्ययन कक्ष की जिम्मेदारी अपने किसी साथी पर छोड़ कर चला जाता था । काम साधारण था और बड़ी सरलता से यह हो गया ।
“काशी छात्र परिषद” के तत्वावधान में ही हमने रविवार को साप्ताहिक विचार गोष्ठी करना शुरू किया । इन विचार गोष्ठियों में देश के सामने ज्वलंत विषयों पर चर्चा होती थी। ज्यादातर विधि संकाय के प्रोफेसरों को हम बुलाते थे । एकाध-बार कुछ अन्य विभागों के प्रोफेसरों को भी बुलाया था। प्रोफेसरों को बुलाना जरूरी नहीं था, लेकिन फिर भी उनके उपस्थित हो जाने से अनुशासन बन जाता था । विश्वविद्यालय में रहते हुए और पढ़ते हुए कुछ रचनात्मक प्रवृत्तियों के साथ जुड़ने का यह स्वर्णिम काल था ।
बनारस हिंदू विश्वविद्यालय में पढ़ते हुए वाद- विवाद प्रतियोगिता में विश्वविद्यालय से मेरा चयन हुआ और मुझे भागलपुर विश्वविद्यालय द्वारा आयोजित एक वाद- विवाद प्रतियोगिता में भाग लेने का अवसर मिला । एक वर्ष के लिए यह चयन होता था तथा उस एक वर्ष के दौरान जो भी अंतर्विश्वविद्यालय वाद-विवाद प्रतियोगिताएं होंगी ,उनमें बनारस हिंदू विश्वविद्यालय का प्रतिनिधित्व मुझको करना होता था। संयोगवश कुछ प्रतियोगिताओं का मुझे बाद में पता चला और इस कारण मैं वहाँ जाने से वंचित रह गया। वर्धा में भी एक प्रतियोगिता थी , जहाँ मैं नहीं जा पाया।
काशी हिंदू विश्वविद्यालय के सयाजीराव गायकवाड पुस्तकालय में बैठकर ही मैंने अपनी पहली पुस्तक “ट्रस्टीशिप विचार” की रचना की, जो मेरे जीवन की एक बड़ी उपलब्धि है।
एलएलबी के छात्रों के लिए एक” मूट कोर्ट प्रतियोगिता” बार काउंसिल ने शुरू की और इसका आयोजन पुणे ( महाराष्ट्र ) में हुआ। इसमें भी मेरा चयन बनारस हिंदू विश्वविद्यालय की ओर से हुआ था और मैंने वहाँ भाग लिया।
डॉ कर्ण सिंह तथा भूतपूर्व काशी नरेश के भाषणों को सुनने का अवसर विश्वविद्यालय स्थित मालवीय भवन में मुझे मिला। जब भूतपूर्व काशी नरेश ने डॉ कर्ण सिंह को” महाराजा” कहकर संबोधित किया तब डॉ कर्ण सिंह ने मुस्कुराते हुए कहा था- “भूतपूर्व” । इस पर भूतपूर्व काशी नरेश ने बहुत अधिकार पूर्वक तथा जोर देकर कहा था कि “राजा कभी भूतपूर्व नहीं होता। ” सुनकर डॉक्टर कर्ण सिंह केवल मुस्कुरा कर रह गए थे।
यह भूतपूर्व काशी नरेश की बनारस में अपनी गरिमा और सम्मान था जो शायद देश भर के राजाओं में उन्हें सबसे ज्यादा प्राप्त होता था ।
मुझे मेरे सहपाठियों ने यह जिक्र किया था कि भूतपूर्व काशी नरेश लोहे की जैकेट पहनकर ही समारोह में जाते हैं । यह सुरक्षा की दृष्टि से होता है, ताकि कोई भी हमला उनके ऊपर असर न कर सके । मैंने समारोह में काशी नरेश के करीब जाकर उनको छुआ और सचमुच वह लोहे की जैकेट पहने हुए थे।
सभा के बाद मैंने डॉ कर्ण सिंह को अपना “सहकारी युग ” साप्ताहिक,रामपुर में प्रकाशित लेख “श्री अरविंद का आर्थिक दर्शन” दिया। उसके कुछ दिनों बाद मेरे पास डॉ कर्ण सिंह का पत्र आया, जिसमें उन्होंने मेरे लेख पर मुझे बधाई- जैसे शब्द कहे थे । यह पत्र “विराट हिंदू समाज “के लेटर पैड पर डॉ कर्ण सिंह ने लिखा था । मैंने डॉक्टर कर्ण सिंह की प्रतिक्रिया की एक लाइन 1990 में प्रकाशित अपने पहले कहानी संग्रह में प्रकाशित भी की थी।
समारोह में ही इस बात की भी चर्चा डॉ कर्ण सिंह ने की कि चुनाव बहुत खर्चीले होते जा रहे हैं । उन्होंने कहा कि हम लोग तो भूतपूर्व महाराजा हैं ,अतः जैसे- तैसे खर्च कर देते हैं ,लेकिन अत्यधिक खर्च लोकतंत्र के लिए चिंता का विषय है । यह घटना 1980-81 के आसपास की होगी और अनेक दशक बीतने के बाद भी प्रश्न ज्यों के त्यों हैं। विश्वविद्यालयों में अराजकता तथा दलगत राजनीति हावी हो गई है। विद्यार्थियों की अभिरुचि पढ़ने के स्थान पर दलगत चुनाव लड़ने तथा नेताओं के पिछलग्गू बनने में ज्यादा है । पता नहीं हालत कब सुधरेगी ?
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लेखक : रवि प्रकाश
बाजार सर्राफा, रामपुर( उत्तर प्रदेश)
मोबाइल 999761 5451