बद्दुआ
तू जब भी बगीचों में गुल निहारने लगे
तुझको हर मर्तबा नुकीले काँटे ही चुभे।
कभी अगर जो लगाए फलों के पौधे तू
वहाँ पे फल नहीं सिर्फ़ कैक्टस ही उगे।
तमाम शहर में हो बारिशों की मस्तियाँ
तेरे बदन पे मगर एक भी न बूँद गिरे।
तेरे धोखे ने मुझे मारा सब ये बात करे
तू अपने मौजूदा दीवाने से भी ख़ूब लड़े।
हर एक रात तुझे सिर्फ़ मेरे ख़्वाब दिखे
सुबह को नींद खुलने पे दिल भी दुखे।
तू मेरी क़ब्र पे आके बहाए अश्क़ बड़े
कम से कम क़ब्र को ही तेरा साथ मिले।
-जॉनी अहमद ‘क़ैस’