बद्दुआ (लघुकथा)
बद्दुआ
अपने ग्राहक को विदा करके जब राधा, सुजाता की कोठरी में गई, तो देखा कि सुजाता गुमसुम बैठी है।
राधा ने सुजाता से पूछा,क्या हुआ बहन? इतनी उदास क्यों हो?
सुजाता बोली, नहीं री,ऐसी कोई बात नहीं है।बस, ऐसे ही दुनियादारी में खो गई थी।
राधा ने कहा, अरे मुझे भी तो बताओ दी, ऐसा क्या सोच रही थीं जो उदास हो गईं ?
सुजाता ने रुँधे गले से बताया, बहन ,मेरी समझ में ये नहीं आता कि लोग हमें बद्दुआ क्यों देते हैं।हमें कलंक क्यों मानते हैं।जो लोग वास्तव में समाज के कलंक हैं, उन्हें तो सब आशीर्वाद देते हैं। हम तो कोई ऐसा काम नहीं करते जिससे देश और समाज का नुकसान हो। हम न चोरी करते हैं और न ठगी।हम तो लोगों की तन भूख मिटाकर अपनी और अपने बच्चों की पेट की भूख शांत करते हैं।
राधा ने कहा, सही कह रही हो दी! लोग अपनी अतृप्त काम वासना शांत करने के लिए स्वयं हमारे पास आते हैं।हम किसी को पकड़कर तो अपने पास लाते नहीं हैं।लोग आते हैं और अपनी तन की क्षुधा शांत कर वापस चले जाते हैं।हम किसी का घर नहीं तोड़ते।फिर भी लोग हमें बद्दुआ देते रहते हैं।
सुजाता ,राधा की बात को आगे बढ़ाते हुए बोली, बहन ! ये, वे लोग होते हैं जो गली से गुजरने पर हमें ललचाई नज़रों से देखते हैं पर सज्जनता का लबादा ओढ़े होने के कारण हमारी चौखट तक नहीं आ पाते और हमें ही कोसते रहते हैं।
डाॅ बिपिन पाण्डेय