दोहे
बदल गया है आजकल, कविता का किरदार।
वह बस करती मंच पर,शब्दों का व्यापार।।1
होता जिसके पास में, पैसा और रसूख।
समझ नहीं पाता कभी,वह निर्धन की भूख।।2
धर्म ग्रंथ मन के लिए, होते जैविक खाद।
स्वस्थ विचारों को रखें,जीवन बने सुस्वाद।।3
संबंधों से जब हटी,अपनेपन की धूप।
संबोधन, संवाद के,बदल गए प्रारूप।।4
जिस घर पैर पसार कर,बैठी मिली शराब।
टूट गए परिवार के,सभी सुनहरे ख़्वाब।।5
मान नियति को जो सदा,करते हैं संतोष ।
उन्हें निकम्मा मानकर, दुनिया देती दोष।।6
पहले बेच शराब जो,करवाते मधुपान।
वही चलाते बाद में,नशामुक्ति अभियान।।7
पास नहीं जिनके रहा,खाने को दो जून।
पालन करते देश का, बस वे ही क़ानून।।8
आहट नहीं बसंत की,सब कुछ तो है स्याह।
कुर्सी पाकर हो गया,ख़ादिम तानाशाह।।9
कल तक जो थे घूमते,हरदम नंगे पैर।
सत्ता पाकर कर रहे, वायुयान में सैर।।10
सज़ा नहीं देता उन्हें, कोई भी क़ानून।
झूठे वादों से करें, जो सपनों का खून।।11
चौड़ी होकर जब सड़क,पहुँची अपने गाँव।
कटे वृक्ष सब साथ के,पथिक ढूँढता छाँव।।12
डाॅ बिपिन पाण्डेय