बदलते मूल्य
बदलते मूल्य
आठ महीने की अंजली को पहली बार डे केयर में छोड़कर वृंदा आफ़िस जा रही थी । मेलबर्न की ये सड़कें उसे रत्ती भर भी अच्छी नहीं लग रही थी । उसे सोचकर आश्चर्य हो रहा था कि बैंगलुरु के ट्रैफ़िक से भागकर जब वे पहली बार यहाँ आए थे तो उसने और अरविंद ने कैसे राहत की साँस ली थी, मानो अब ज़िंदगी में कोई संघर्ष बचा ही नहीं , दोनों सड़कों की तारीफ़ में गुण गाए जा रहे थे । सब कुछ तो था ऑस्ट्रेलिया में , बढ़िया मेडिकल फ़ैसिलिटी, बढ़िया स्कूल, शुद्ध हवा, हाँ, ओज़ोन होल की समस्या थी, पर उसके लिए उपाय थे। सस्ते व्याज पर बैंक ने लोन दे दिया था ,और उन्होंने एक बढ़िया सा घर इतने कम समय में ले लिया था। कोविड समाप्त होते न होते वह गर्भवती हो गई थी । और इधर रशिया और यूक्रेन का युद्ध भी आरम्भ हो गया था , और वे देख रहे थे कि यह युद्ध तो समाप्त होता नज़र ही नहीं आ रहा , और महंगाई लगातार बढ़ रही है। जब तक उनकी बेटी अंजली हुई, तब तक व्याज की दर भी बढ़ने लगी थी । इसलिए वृंदा को मजबूरी में अंजली को डे केयर छोड़ कर फिर से काम पर जाना पड़ रहा था ।
कार चलाते हुए उसकी ब्रा दूध से थोड़ी गीली हो आई तो उसकी आँखें भी नम हो उठी । बचपन में पढ़ी मैथलीशरण गुप्त की वह पंक्तियाँ उसके मस्तिष्क में उभर आई..
‘ अबला जीवन हाय तुम्हारी यही कहानी
आँचल में है दूध, आँखों में पानी ।’
उसे लगा , उसकी परदादी की पीढ़ी की औरत के लिए लिखी यह पंक्तियाँ उसके लिए भी तो सच ही हैं ।तीन पीढ़ी पहले की औरत लाचार थी क्योंकि आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर नहीं थी , और मैं लाचार हूँ क्योंकि ज़रूरतें इतनी बढ़ गई हैं ।
वह आफ़िस आई तो सबने उसका स्वागत किया , माँ बनने की बधाई दी । परन्तु दो घंटे बीतते न बीतते काम का दबाव बढ़ने लगा , पिछले दस महीनों में नया सोफ्टवेर आ गया था और किसी के पास समय नहीं था कि उसे बैठ कर सिखाए , उससे बार बार गलती हो रही थी , मन कर रहा था कि यह सब छोड़े और अंजली को जाकर अपनी गोद में भर ले । वह आठ महीने की बच्ची जिसे अभी ठीक से यह भी नहीं पता कि वह और उसकी माँ एक नहीं अपितु दो अलग अलग व्यक्ति हैं , उसे वह उनके हवाले छोड़ आई थी, जिनके लिए उसकी देखभाल बस पैसा कमाने का ज़रिया थी ।
अंजली रोज़ डे केयर से नई नई बीमारियाँ ले आती , वृंदा रात को सो नहीं पाती , अरविंद दूसरे कमरे में सोने लगा । अंजली का खाना डे केयर में हो जाता और ये दोनों कुछ भी , कभी भी खा लेते । अरविंद का वजन बढ़ रहा था , और वृंदा का घट रहा था ।
धीरे-धीरे अंजली डे केयर में एडजैस्ट होने लगी , वहाँ का खाना , भाषा, लोग , सबमें ढलने लगी । अब वृंदा को एक अजब सा सूनापन सताने लगा, उसे लगता उसे तो अपनी बेटी के साथ समय ही नहीं मिलता, वह तो यह भी नहीं जानती कि दिन भर में वह खाती क्या है । शनिवार, रविवार को अंजली बेचैन हो जाती , माँ बाप के साथ जैसे उसका दिल ही नहीं लगता , किसी से मिलने जाते हैं तो वापिस घर ही नहीं आना चाहती ।
वृंदा ने अरविंद से कहा , “एक बच्चा और आ जाएगा तो इसका दिल घर में लगने लग जाएगा ।”
अरविंद ने आँखें फैलाते हुए कहा , “ इतनी जल्दी?”
“ इतनी जल्दी क्या, मैं 37 की हूँ, तुम 40 के हो । अंजली भी दो की हो गई है । “
“ पर हमारे ऊपर लोन है, प्राइवेट स्कूल की फ़ीस के अभी पैसे जुटाने हैं, दूसरे बच्चे के लिए तुम फिर से एक साल के लिए नौकरी छोड़ दोगी , तो हम गुज़ारा कैसे करेंगे ?”
वृंदा मुस्करा दी , “ किसने सोचा था इतना पढ़ा लिखा लड़का , 40 की उम्र में गुज़ारे की बात करेगा ?”
अरविंद मुस्करा दिया , “ अब क्या किया जाये, तुम तो ख़बरें सुनती नहीं हो, इसलिए तुम्हें कोई चिंता भी नहीं है। “
“ चिंता मुझे भी है, पर मैं लड़ने से पहले हारना नहीं चाहती, और रही खबरों की बात, तो मैं क्यों रोज़ यही देखूँ कि कुछ अनजाने लोग मेरी ज़िंदगी को अपने मतलब के लिए तबाह करने पर लगे हैं । अफ़सोस की बात तो यह है , हम जो तकनीक से जुड़े लोग हैं उनकी ताक़त बढ़ाने में लगे है जो पहले से ही हमारी ज़िंदगियों को बेहाल किये हुए हैं , हम खुद अपनी ग़ुलामी ख़रीद रहे हैं ।”
“ तो यह तय रहा कि हम दूसरे बच्चे की बात नहीं करेंगे । “ अरविंद ने ज़ोर देते हुए कहा ।
“ मुझे अपनी बेटी के लिए भाई बहन चाहिए, और मैं उसकी क़ीमत दूँगी ॥”
“ यानी?”
“ सबसे पहले हमें इतने बड़े घर की ज़रूरत नहीं, हमें खाना बाहर खाने की ज़रूरत नहीं , अंजली के डे केयर की ज़रूरत नहीं । “
“ तुम नौकरी छोड़ रही हो ।” अरविंद ने बात समझते हुए कहा ।
“ हाँ । और अंजली को नए खिलौनों की ज़रूरत नही, प्राइवेट स्कूल की भी ज़रूरत नहीं , उसे मैं पढ़ाऊँगी । आख़िर मेरी शिक्षा क्या सिर्फ़ धन कमाने के लिए हुए थी , या अगली पीढ़ी को योग्य बनाना भी उसका एक भाग था ?”
“ यह सब तो ठीक है, पर तुमने यह अकेले ही निर्णय ले लिया ?”
“ निर्णय नहीं लिया, बता रही हूँ , मैं चाहती हूँ हमारी ज़िंदगी हमारी रहे , हम बड़ी बड़ी कंपनियों के पुर्ज़े बनकर न रह जाये, इन्सान बने रहें, अपनी भावनाओं के साथ । जिसमें विश्वास हो । जब स्कूलों में पढ़ाते हैं कि माँ बाप के ख़िलाफ़ पुलिस को शिकायत की जा सकती है, या डे केयर में सिखाते हैं कि किसी नए व्यक्ति पर विश्वास मत करो, तो मुझे आने वाले कल के लिए फ़िक्र होती है। “
“ पर घर रहने से यह सब चीज़ें समाज से चली तो नहीं जायेंगी ।”
“ जानती हूँ , पर मेरे बच्चे तो सहज विश्वास करने के काबिल बने रहेंगे ।”
“ वृंदा, बदलते समय के साथ हमें बदलना चाहिए ।” अरविंद ने चाहिए पर ज़ोर देते हुए कहा ।
“ यह बदलता समय नहीं , बदलते मूल्य हैं , मैं उनको स्वयं परखना चाहू्गी , यदि मैं इन्सान हूँ तो यह मेरा फ़र्ज़ भी है और अधिकार भी।”
“ ठीक है तुम्हें जो करना है करो ।” और अरविंद ग़ुस्से से बाहर चला गया ।
वृंदा ने सोचा, यह लड़ाई तो उसे लड़नी ही होगी । अस्तित्व की लड़ाई बैंक बैलेंस या बड़े घर से नहीं जुड़ी है, अपितु अगली पीढ़ी के चरित्र से जुड़ी है, जो भावनाओं से जुड़ा है , और सच्ची भावनायें माँ के प्यार से जुड़ी हैं , जिसके अनुभव के लिए उसे समय निकालना ही होगा ।
…….शशि महाजन