*बदरी तन-मन बरस रही है*
बदरी तन-मन बरस रही है
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हृदय में अगन बहुत लगी है,
सावन की जो छिड़ी झड़ी है।
घन-घोर घटा नीले नभ में,
पिया मिलन की आई घड़ी है।
प्यासी रूह नयन के जरिए,
बदरी तन – मन बरस रही है ,
कब तक दर पर नैन-निहारूँ,
वक्त की सूई क्यों रुकी हैँ।
विरह की पीड़ा झेल न पाऊँ,
मौत की घड़ियाँ दर खड़ी है।
मनसीरत मन हरदम प्यासा,
पीर भरी हर चीज दुखी है।
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सुखविंद्र सिंह मनसीरत
खेड़ी राओ वाली (कैथल)