बदरी चली है पिय मिलन को
देखो वो बदरी चली
है पिय मिलन को ।
तन में सिहरन
मन मिलन की धुन में गुम
छोड़कर पीहर चली
है पिय वरण को।
देखो वो बदरी चली
है पिय मिलन को ।
नयनों का मद ढांका
काजल के तले
होंठ में लाली
पिया के मन हरण को ।
देखो वो बदरी चली
है पिय मिलन को ।
मुख भी रक्तिम वर्ण
सा अनुराग में
पायलों की रुनझुन
हरती प्रेमी जन को ।
देखो वो बदरी चली
है पिय मिलन को ।
सोंचती है क्या कहूं
जब पिय मिलेंगे।
बात मैं बोलूंगी
नयन से सब नयन को ।
देखों वो बदरी चली
है पिय मिलन को ।
संकुचित सी
हो रही उजास में
पढ़ ले न कोई
मेरे इस उत्सुक मन को ।
देखो वो बदरी चली
है पिय मिलन को ।
देखा जब सागर ने
आती प्रियतमा
ज्वार मन का
बढ़ चला आलिङ्ग को ।
खोलकर स्वागत में
बांहे वो उठा
आ मिले फिर दो हृदय
पीछे छोड़ तन को ।
देखो वो बदरी चली
है पिय मिलन को ।
संकुचित सी आके
प्रिय की बांहों में
कर रही है वो
समर्पित तन को मन को ।
देखो वो बदरी चली
है पिय मिलन को ।