बदनाम माँ
आपका जैसा निर्णय है शकुन ! पर शकुन की समझ में कुछ न आ रहा था – ‘‘जानती हो इसका परिणाम?
सर ! मैं जो कह रही, सोच विचार कर ही कह रही । बस एक निवेदन है कि, यह राज, राज ही रहे । यह बात किसी पर जाहिर न होने देंगे ।
और जिस दिन जयबाबू को पता चलेगा, तो मुझ पर ही नहीं, आप पर का भरोसा उठ जायेगा । उनकी खुशियाँ, आशायें दम तोड़ देंगी………..टूट जायेगा वह, और कहेगा इतना बड़ा धोखा ?
मैं जानती हूँ सर! आपको दुख होगा! कैसी-कैसी बातों का मुझे भी सामना करना होगा । फिर मैं भी अपना फैसला नहीं बदलना चाहती ।
‘‘देखो बेटी यह ऐसा फैसला है जो न तो आपकी जिंदगी में हितकर है और न ही आपके त्याग का कोई मूल्य, दुनिया के ताने सुन-सुन कर इतनी आहत हो जायेगी कि जीना भी मुश्किल हो जायेगा । फिर तुम्हारी उम्र ही क्या है ।‘‘
‘‘ नहीं सर गैर भी अपने हो जाते हैं वह तो अपना ही है ।‘‘
‘‘तुम्हारा फैसला यही है तो इस कृत्य के लिये मैं माफी चाहता हूँ । ऐसा तो कोई दूसरा ही कर सकेगा……..मैं नहीं !‘‘ डाक्टर प्रकाश ने शकुन को बहुत समझाया ।
‘‘ डॉ. अंकल ! बात किसी दूसरे की नहीं विश्वास की है, भरोसे की है । आप से बढ़कर और कौन हो सकता है मेरा हितेषी । मुझे और कौन समझ सकता है आपसे बेहतर ।‘‘
‘‘शकुन! तुम्हारा हमदर्द, तुम्हारा हितैषी बनकर आपकी जिंदगी से खिलवाड़ मैं नहीं कर सकता । कैसे समझाऊँ शकुन…… दुनिया मौका परस्त है, हर जगह स्वार्थ है । सच में यह दुनिया तुम्हें जीने नहीं देगी ।
‘‘ मैं ऐसा नहीं मानती डॉ अंकल, मेरी जिंदगी में जो कुछ भी होगा, ठीक ही होगा । भविष्य ईश्वर के भरोसे छोड़ दीजिये अंकल! इंसान के हाथ में तो आज भी कुछ नहीं ।‘‘ शकुन ने कहा और डॉ प्रकाश की आँखें शकुन के चेहरे पर ठहर सी गईं; शायद वे उनके मनोभाव को पढने लगे थे ! कुछ रूककर एक साँस खींची-‘‘ शाबास बेटी ! तुम्हारे जैसा त्याग लाखों में कोई एक, शायद कर सकता है। तुम्हारा साहस और धैर्य काबिले तारीफ है । मुझे गर्व है तुम पर ।‘‘ डॉ प्रकाश ने शकुन के सर पर हाथ फेरते हुये कहा था।
शकुन की आँखे सजल हो उठी थी । जिंदगी कितनी तेजी से गुजर गई थी । पता ही न चला था । पच्चीस वर्ष की बात मानो कल की सी जान पड रही थी ! शकुन चारपाई पर लेटी थी, बीमार ऐसी थी कि बचने की उम्मीद बहुत कर रह गई थी ।
बेटे की बांट जोहते-जोहते आँखे पथरा गई थीं ! पर आस टूटने का नाम नहीं ले रही थी ! डॉ अंकल के कहे एक-एक शब्द उनके अन्तर्तम में चोट कर रहे थे । शायद उसकी जिंदगी का यह आखिरी पड़ाव था ।
किसी के खांसने की आहट पाकर शकुन ने करवट बदली; सामने जयबाबू पर नजर पड़ी!
‘‘कैसी है तबीयत……….!‘‘पूछ लिया जयबाबू ने ।
‘‘ठीक तो हूँ……………..‘‘ । जबरदस्ती की मुस्कान चेहरे पर लाती शकुन बोली-‘‘ देर लगा दी आपने……………..खाना भी नहीं खाया…………….ऐसे खोये-खोये से फिरते रहते जैसे मैं मर…………..।
‘‘ शकुन…………! ऐसा न कहो शकुन…………..! तड़प उठे जयबाबू- ‘‘ शकुन की हथेली अपने दोनों हाथ में भरकर चूमने लगे……………उनका गला भारी हो चला था।
‘‘क्या हुआ मुझे……..आप तो बच्चों जैसी हरकत करने लगते हैं । मर्द होकर भी…………..!‘‘तसल्ली दी शकुन ने ।
‘‘ क्या करूँ शकुन…………कहाँ ले जाऊँ……………कहाँ छुपा लूँ तुम्हें………..! जयबाबू की ताकत टूटती जा रही थी ।
‘‘अच्छे हैं आप…………..ऐसी बातें करते जैसे मैं छोड़कर कहीं भाग जाने वाली हूँ! ‘‘शकुन-जयबाबू को सान्त्वना देती, साहत बढाती-पर अपने अंदर की पीड़ा ऐसे छुपाये थी; मानो दुनिया क्या, वह खुद अंजान हो !
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अनुराग ने अपने घर पर ही गोदभराई पर फलदान की रस्मोदायगी का फंक्शन कुछ खास दोस्तों के साथ रखा था। अनुराग ने इसकी कोई आवश्यकता न समझी थी कि घर पर उसके माता-पिता भी हैं ।
सारे मोहल्ले पर दृष्टि डालने के बाद डॉ प्रकाश ने अनुराग से पूछ लिया-अनुराग जी! आपके सगे-संबंधी ! ‘‘ किंतु डॉ अनुराग ने जैसे कुछ सुना ही न था; कोई जबाव न दिया तब डॉ प्रकाश को कुछ संदेह सा हुआ और पुनः पूछा-‘‘आपने हमारे प्रश्न का उत्तर न दिया ! इस बार भी अनुराग अनसुना करता आगे बढ़ गया ।
डॉ प्रकाश को कुछ अच्छा न लगा, जानने की जिज्ञासा और बढ़ी-‘‘अनुराग जी!‘‘इस बार डॉ प्रकाश की आवाज शख्त और तेज थी -‘‘आपकी चुप्पी ने तो और मजबूर कर दिया!‘‘
‘‘सर ! क्या यह सब बताना जरूरी है । ‘‘
‘‘आपके बात करने के लहजे ने जरूरी बना दिया अनुराग जी,‘‘
‘‘सर ! इतना बड़ा फक्शन तो है नहीं‘‘ ।
‘‘ ये रिश्तों की बुनियाद हैं अनुराग जी ! जिंदगी में इससे बड़ा फक्शन मैं नहीं समझता अनुराग जी !
घरवालों से राय मशवरा माना जरूरी नहीं पर आशीर्वाद तो कम नहीं,‘‘ ।
‘‘ठीक है सर, आप जानना ही चाहते हैं तो सुनिये!‘‘ डॉ अनुराग ने कहा-‘‘नफरत है मुझे अपने माता-पिता से……………‘‘ ।
‘‘नफरत! नफरत और वह भी अपने माता-पिता से….! डॉ प्रकाश उसके जबाव से तिल-मिला गये ।
‘‘ हाँ सर मेरा बचपन सौतेली माँ के साथ में बीता है । मेरी माँ के मर जाने पर दूसरी शादी रचा ली थी । दूसरी माँ से प्यार के बदले प्रताड़ना मिली । भूखा रहना पड़ा। उनकी रोज-रोज की मार से तंग रहता । एक पल भी मेरा बचपन खेल न पाया । मैं हमेशा कैद रहा! घर के बाहर दुनिया कभी देखा न पाया । अनुभवहीन जब घर से बाहर निकला तो एक-एक पाई के लिये तंग हाल जीना पड़ा । ईश्वर की कृपा से अब किसी की कमी नहीं है ।‘‘
अपने माता-पिता की भी नहीं?
‘‘कहा न सर…. नफरत है मुझे………..डॉ प्रकाश ने कोई जबाव न दिया । उनके दिमाग में आंधी चल रही थी । उनके दिमाग में लगभग 25 वर्ष की घटना झकझोर रही थी । अपने आप में खोकर अतीत में डूबने लगे -‘‘ वादा करो डॉ अंकल यह रहस्य, रहस्य ही रहेगा । ‘ किसी पर प्रकट न होने देगें । ‘
बेटी यह ठीक नहीं, अपनी जिंदगी पर स्वयं कुठराघात मत करो । कम से कम एक संतान हो जाने दो उसके बाद…..।
‘ नहीं अंकल, ये तो …………अब और की क्या आवश्यकता है; मेरा सबकुछ यही है ।‘
‘ जरा सोचो बेटी…………!‘
‘मैंने सब सोच लिया है अंकल मैं तैयार होकर आ गई ।‘
‘जिद मत करो बेटी।‘
मैं जिद कहां कर रही हूँ अंकल! मुझे और नहीं चाहिये न……..! बस यही उसको अच्छी तालीम दे पाऊँ; यही आशीर्वाद दीजिये मुझे ।‘ अतीत कल की नाई सा चित्रित हो रहा था आँखों में । अतीत क्यों बार-बार कचोट रहा था? डॉ प्रकाश का हृदय डॉ अनुराग पर क्यों संदेह कर रहा था? यह जरूरी तो नहीं कि जयबाबू जैसा ही हो उसका लाड़ला । व्यर्थ का संदेह नहीं करना चाहिये । डॉ प्रकाश मन को सान्त्वना देते और भूल जाने की कोशिश करते -‘यह उसका निजी मामला है। इससे क्या लेना देना। डॉ प्रकाश ने सोचा और मरीजों में उलझ गये
डॉ प्रकाश उलट-पुलट का सारी रिपोर्ट देख रहे थे । ललाट पर पसीने की बूंदे उमड़ रहीं । शकुन का नाम देखकर धक्का सा लगा हृदय में ।
सामने बैठे व्यक्ति को देखकर उनका संदेह यकीन में बदलने लगा – शायद शकुन के पति है (जयबाबू)
‘‘यह………‘‘ डॉ साहब पूछना चाहते किंतु उस व्यक्ति ने बीच में तपाक से कहा………..पत्नि है मेरी ।‘‘
‘‘कोई और…….आपके साथ………….।‘‘
‘‘नहीं डॉ साहब! नहीं! कोई और नहीं !
‘‘बच्चे भी………..!
‘‘औलाद…..!औलाद के नाम है पर एक कपूत..!‘‘
‘‘क्यों? क्या करता है ?
पता नहीं डॉ साहब पाँच-छहः वर्ष से न तो आया है और न ही चिठ्ठी पाती भेजी ! सुध तक न ली साहब ! पत्नि की ओर इशारा करते बोला-‘‘इस अभागिन को बार-बार कहा था; अपनी सारी पूंजी इस पर मत लुटा! जिंदगी का क्या ठिकाना । किंतु यह नहीं मानी घर-मकान सारी जायदाद सब कुछ बेच बांच कर उस पर लुटा दी । कहा करती थी उसका बेटा अफसर बन रहा है । साहब! ईश्वर ने भी इसके साथ कम मजाक नहीं किया ! इस सहारा देने के लिये कम से कम एक लाठी तो लगा दी होती । यह अभागिन बांझ का बोझ लिये दुनिया के ताने सहते रही । ईश्वर ने तनिक दया नहीं दिखाई । ‘‘कहते-कहते जयबाबू का गला भारी हो चला था। बूढी सी आँखों में आँसुओं के दीप थर-थराने लगे । ‘‘अब तो बस………मुझे छोड़कर जायेगी ही जायेगी ।‘‘
डॉ साहब अपने आपको रोके रहे । क्या कहे, क्या न कहें । निरूत्तर रह गये। जयबाबू भी अपने मित्र डॉ प्रकाश को पहचान न सके ।
‘‘आप घबराईये नहीं। ‘‘डॉ साहब ने कहा‘‘ डॉ कोई भगवान तो होता नहीं…………हां इतना जरूर कह सकता-यदि इसकी जिंदगी है तो पैसों की कमी आड़े नहीं आ पायेगी । डॉ साहब ने दृढ़ता और विश्वास से कहा तो जयबाबू को लगा वह इनके चरण चूमले । वह पैरों में झुके भी किंतु डॉ साहब ने अपनी आगोश में भर लिया । जयबाबू अब भी डॉ साहब को पहचान न सके ।‘‘
रिक्शे में लदी वह महिला -हास्पिटल के अंदर लाई गई तो सारा अमला हरकत में आ गया । डॉ साहब ने देखा- ‘वह शकुन ही थी‘ पहचानते देर न लगी । हालत देखकर सारा बदन थर-थरा सा गया । उन्हें लगा, ऐसे हालात के लिये वह क्या कम जिम्मेदार थे ? वह भी कम दोषी नहीं हैं?
जयबाबू की डब-डबाई आँखें डॉ साहब की ओर गई। डॉ साहब ने जयबाबू का कंधा थप-थपाते हुये ढाढस दिया-‘‘भगवान पर भरोसा रखो । सब ठीक हो जायेगा । कहते डॉ साहब जयबाबू को बाहर बैठने का इशारा करते हुये फुर्ती में अंदर चले गये ।
‘‘डॉ प्रकाश की नम आँखें जब अनुराग ने देखी तो उनको बहुत आश्चर्य हुआ। इससे पहले भी गंभीर मरीजों से सामना हुआ है । पर ऐसी स्थिति कभी नहीं बनी। डॉ अनुराग एक पल सोचने तो लगे पर कुछ कहने-पूछने का साहस न हुआ ।
‘‘इस ऑपरेशन में आपकी होने वाली पत्नि का होना आवश्यक है। डॉ प्रकाश ने अनुराग से कहा ।
‘‘सर ! मैं समझा नहीं । डॉ अनुराग ने जबाव’-दिया उनका इससे क्या वास्ता?
‘‘वास्ता है! बहुत वास्ता है। सब समझ जाओगे।
‘‘यस सर! कहकर डॉ अनुराग ने तुरंत फोन डायल किया । दूसरी तरफ से शीघ्र आने का संकेत मिल गया ।
मरीज का शरीर चादर मे ढंका था । थोड़ी ही देर में बिना क्षण गवाये डॉ अनुराग की मंगेतर मौजूद थी ।
‘‘ आप आ गई।‘‘ डॉ प्रकाश ने उनकी ओर मुखातिब होते हुये पूछ लिया-‘‘आपका इस ऑपरेशन में सहयोग जरूरी समझा………..वैसे भी आपका उपस्थित रहना जरूरी था । ‘‘
‘‘सर मैं समझी नहीं ……..?‘‘
‘‘समझ जाओगी ।‘‘
‘‘मेरा रहना क्यों जरूरी है? क्या वास्ता है सर ।‘‘
‘‘वास्ता है मैडम………..बहुत कुछ वास्ता है ।‘‘
‘‘ठीक है सर। मैं मौजूद हूँ ।‘‘ ‘‘अनुराग जी‘‘ । ऑपरेशन बहुत इतमिनान, होशियारी और ईश्वर को साक्षी मानकर उनके भरोसे शुरू कीजिये ।‘‘ डॉ साहब ने डॉ अनुराग से कहा और डॉ अनुराग बहुत शांति और इतमिनान से ऑपरेशन करने लग । डॉ अनुराग की मंगेतर जिज्ञासापूर्ण, ऑपरेशन देखने लगी ।
‘‘सर ! इस महिला का ऑपरेशन……‘‘। हाँ…….पहले भी एक बार हो चुका। ‘‘डॉ प्रकाश ने बीच में ही कहा-‘‘यह पेट का दूसरा ऑपरेशन है ।‘‘
‘‘डॉ अनुराग ने उस महिला का पेट खोला-‘‘सर! लगता है यह महिला तो माँ ही न बनी हो.?
‘‘सही परखा डॉ प्रकाश ने बीच में कहा।‘‘
‘‘मगर टी.टी. ऑपरेशन…………!‘‘
हुआ है……टी.टी. ऑपरेशन । डॉ प्रकाश ने कहा तो डॉ अनुराग की मंगेतर ने हैरत से पूछा-‘‘ बच्चे हुये नहीं……….. मगर टी.टी ऑपरेशन…….ऐसा किसलिये डॉ साहब।‘‘
डॉ प्रकाश निःश्वास भरते बोले- ‘‘इससे एक ही संतान हो जाती तो…….तो शायद आज यह स्थिति न होती ।
‘‘क्या मतलब सर? यह स्थिति और निःसंतान? डॉ अनुराग की मंगेतर ने जानना चाहा तो डॉ प्रकाश पुनः बोले-‘‘इसने अपनी जिंदगी अपने बेटे पर निछावर कर दी ।‘‘
‘‘निःसंतान…….बेटा………..! मैं कुछ समझी नहीं……..।
‘‘ है एक अभागी।‘‘ कहते-कहते डॉ प्रकाश रूके ! डॉ अनुराग सहित उनकी मंगेतर आश्चर्य में पड़ गये-‘‘बेटा हुआ नहीं…….बेटा हो जाता…………..बेटा है; यह कैसी बातें हुईं! वे सोचने लगे ।
‘‘यह अपने बेटे की दूसरी माँ है ! ‘‘डॉ साहब कहने लगे-‘‘पहली माँ का स्वर्गवास हो गया तो दूसरी शादी इसलिये करना पड़ी कि इसे माँ का अभाव न हो ! इसका लालन-पालन ठीक से हो! और उसने किया भी यहीं । शिशुकाल में जो एक माँ करती है ।
‘‘कहीं फिसल न जाये इसलिये प्यार के साथ-साथ सख्ती भी बरती । उसे कोई कह न सके कि उसकी दूसरी माँ ने जिंदगी बर्बाद कर दी बिगडैल बना दिया । उसका लालन-पालन सही ढंग से हो सके उसकी ममता, उसका प्यार बट न जाये इसलिये उसने शादी के कुछ दिन बाद ही टी.टी ऑपरेशन करा लिया । इसके लिये उसने वचन लिया कि वह राज, राज ही रहे । किसी पर जाहिर न होने दे । ऑपरेशन भी करने वाला कोई और नहीं मैं ही था………। आज जिंदगी और मौत से जूझ रही। इसलिये यह राज खोलना पड़ा । यह पेशेंट मेरे मित्र की पत्नि ही नहीं, मेरी भी बेटी के समान है । इस त्याग की मूर्ति ने अपना आशियाना ही नहीं जीवन तक लुटा दिया । उसका यह बेटा इतना कृतज्ञ होगा…..लानत है ऐसे बेटे पर। ‘डॉ प्रकाश ने कहा।‘
डॉ प्रकाश कर रहे थे, तभी दरवाजा खुला……सामने जयबाबू थे। उनकी आँखों से तर-तर आंसू बह रहे थे । सारा बदन पसीने से तर-बतर था ।
‘‘पापा आप………….। अपने सामने पिता को देख आश्चर्य से डॉ अनुराग ने पूछा?
‘‘मर गया तेरा बाप…..। जयबाबू ने कहा और फिर डॉ प्रकाश की ओर मुड़कर बोले- ‘‘बहुत दुख झेले डॉ साहब………….बहुत दुख झेले इस अभागिन ने । मैं नहीं जानता था साहब इसको बच्चे न जनमने का क्या कारण है । मैं हमेशा भगवान को कोसता रहा! और यह अभागिन दुनिया के उलाहनें चुपचाप सुनती रही । बांझ के बोझ से पिघलते आंसुओं को गले में ही पीती रही। जयबाबू की आवाज गले में ही अटकने लगी । डॉ प्रकाश को कुछ और सुनने की हिम्मत न रह गई थी ।
जयबाबू वहीं फर्श पर बैठ गये । डॉ अनुराग की पत्नि की समझ सब आ गया था । वह डॉ अनुराग और जयबाबू को देखने लगती । अब डॉ प्रकाश को किसी प्रकार का संशय न रह गया था । उन्होंने मरीज के चेहरे पर से चादर हटाई तो डॉ अनुराग अवाक रह गये !
‘‘माँ………मेरी प्यारी माँ….‘‘ थर-थरा गया वह। आवाज कंप-कपाने लगी थी -माँ की ममता की गहराई मैं नहीं माप सका । मुझसे अक्षमय भूल हो गई…. आपके त्याग को मैं नहीं समझ सका । मरते दम तक भी आपके त्याग के ऋण से ऊर्ण नहीं हो सकता । मुझे क्षमा कर दो माँ….। डॉ अनुराग मां के पैरों पर सर रखकर फूट-फूट कर रो पड़ा । पागलों की नाई मां के पैरों को चूमने लगा ।
‘‘पापा…..। पापा मुझे माफ कर दो पापा मां को समझने मे बहुत भूल कर दी पापा…जो सजा देना चाहो दे दो पापा पर मुझे क्षमा कर दो ।‘‘
डॉ अनुराग तडपने लगा । आँखों से अविरल आंसू बहने लगे ।
‘‘ इस देवी मां के साथ आपने जो व्यवहार किया, अक्षम्य है वह । डॉ अनुराग की पत्नि ने कहा तो डॉ अनुराग और तडप उठे ।
आपकी खुशियों की खातिर जिसने अपनी कोख ही उजाड़ दी; ऐसी मां के त्याग की मिशाल और कहाँ मिलेगी । इतने अकूत त्याग का मूल्य जो आपने दिया वह…वह ठीक नहीं । आपसे पैदा होने वाली संतान ऐसी कृतज्ञ हो और मुझसे नफरत करे । इससे पहले भी मुझे आपके कृत्य ही नहीं आपसे भी नफरत हो गई । जो अपनी मां का भी न हो सका भला वह मेरा क्या होगा । तुमने हमेशा अपनी त्यागमयी मां के प्रति विष उगला । अंधेरे में रखा मुझे । मुझसे कोई उम्मीद न रखना अनुराग जी… मेरा आपसे कोई वास्ता नहीं । ‘‘अनुराग की मंगेतर ने कहा और तीव्रता से बाहर निकल गई । डॉ अनुराग ने सिर्फ और सिर्फ मां के अलावा और कुछ सुना ही न था ।
डी.आर. रजक