बदनाम गली
शहर था मेरा रंगीन बदनाम थी एक गली,
करती अनोखे सवाल रहती वहां मनचली।
सुबह की खामोशी और रात की चकाचौंध –
जिस्म नुमाइश से भीगी वो बदनाम-गली।
कौन थी कहा से आई वो कोई नही जानता,
क्या थी वजह मसली जा रही नादान कली ।
बचपन खो गया उसका ना जाने कब ,कहाँ,
हैरान-परेशान दल-दल में वो क्यूँ फिसली ।
निकलती घर से नकाब पहनकर वो ऐसे,
जिस आँगन की थी शान जहाँ थी पली।
आह भरनी तो लगता दम निकल जायेगा-
हर रात दरिंदो के पैरों तले रौंदी जाती कली।
उसकी चीख सुन कर रात भी सिहर उठती थी,
अश्कों की माला पहन मुस्कराती हुई वो ढली।
पर्दा रूख से हटाना पडा परिवार के खातिर-
चोरों की तरह आना जाना कहलाती चोर गली।
दशहत भरी ज़िन्दगी का दर्द झेलती थी वो,
सोनपरी अपने घर की माँ बाप की अंजलि।
मजबूरियाँ आई ऐसी तो सब कुछ बिक गया-
कैद बनकर रह गई लड़की दिल से थी भली।।
डा राजमती पोखरना सुराना
भीलवाड़ा राजस्थान