बता कान्हा ! कौन सा रिश्ता तुझसे जोडूं ?
ओ मेरे कान्हा !,
बता कौन सा रिश्ता ,
मैं तुझसे जोडूं ?
प्रेयसी बनूं तो राधा के भांति ,
फिर छोड़ जाओगे ,
विरह में तड़पता हुआ ।
बाल सखा बनूं तो ,
भी छोड़ जाओगे ,
अपनी यादों के संग ।
तुम्हारी माता या पिता बनूं ,
तो संतान की विछोह में ,
तड़पता हुआ छोड़ जाओगे ,
फिर पलट के वापिस भी नहीं आओगे ।
गोकुल , ब्रज भूमि ,वृंदावन की गलियां ,
और यमुना का किनारा ,
कदंब का वृक्ष , गइयां इत्यादि को भी
तुम छोड़ गए रोता बिलखता।
फिर मैं ऐसा कौन सा संबंध जोडूं ,
जो अटूट हो ,स्थाई हो ।
जिसमें कभी भी वियोग न हो ,
मैं तो सदा तेरे निकट रहना चाहूं ।
जैसे तेरी बंसी में तान ।
जैसे तेरे अधरों पर मुस्कान ।
जैसे तेरी आंखों में मस्ती ,
जैसे तेरे केशों में मोर मुकुट ,
जैसे तेरे कदमों की धूल ।
इत्यादि ।
जैसे भी ,जो भी हो , जिस विधि से भी ,
मैं तेरी निकटता चाहूं ।
बता कान्हा ! मैं क्या करूं ,
मैं तो तेरा दर्शन ,तेरा सामिप्य ,
नित्यप्रति चाहूं ।
तेरा विछोह मुझसे तनिक भी सहा न जाएगा ।
अब तो यही उचित होगा ,
मैं जन्म ही न लूं धरती पर कभी ।
ताकि बिछड़ना ना पड़े हमें कभी ।
तू मेरा परमात्मा ,और मेरी आत्मा तेरा अटूट अंश है ।
तो मैं तेरा अंश ही बने रहना चाहूं ।
अर्थात मैं स्वतंत्र ,अजर अमर ,अवनाशी आत्मा ,
ही बने रहना चाहूं ।
मैं तुझसे आत्मा – परमात्मा का अटूट और शाश्वत ,
संबंध जोड़ना चाहूं ।
बस यही इस आत्मा की अभिलाषा है ।