बताओ प्रेम करोगे या …?
चारों तरफ़ इश्क़ का कोलाहल है..
इश्क क्या,बड़ा सीमित,संकुचित,
मौसमी बुखार सा उतरता चढ़ता
रक्त में बहते हार्मोनों का असर..
वही जो पहली नजर में हो जाता है अकसर
आंखो में डूबकर, जुल्फों में उलझकर,
नाक से नक्शे से और अंग विन्यासो से
जो कर दे पराजित।
किंतु क्या साहस है तुममें
प्रेम कर पाने का..
वही प्रेम जो परे है तन के भूगोल से,
जो कर सकता है हिम्मत,
डूबने की उन आंखों में
जो धंसी हुई , गड्डे दार घेरों में!
जो सोई नहीं है बरसो तलक
क्योंकि वो लीन है एक तपस्या में।
तुम सम्मान दोगे उस तप को?
या करोगे घृणा उनकी कुरूपता से!
बताओ प्रेम करोगे या इश्क..?
केवल प्रेम ही कर सकता है साहस,
उन हथेलियों को थामने की
जो रूखी , खुरदरी हो चुकी है..
बिना चप्पलों के घसीटते एड़ियों में
चुभे कांटे क्या तब भी निकाल पाओगे
जबकि इतने सुंदर नही है पांव
उन जुल्फों के साए में सो पाओगे
तुम, जो संवारी नही गई कबसे..
उन पपड़ाते होठों पर लिख पाओगे गजल
और कर सकोगे कविता क्या उस सूखी देह पर
जो न हो आकर्षक ,सजीली
क्योंकि वो डूबी है निरंतर संघर्ष में,
कहो,क्या पूज पाओगे उस संघर्ष को?
या सिकुड़ाओगे नाक भौं एक ऐसी कृति को देखकर जो तुम्हारे स्वप्नों की छवि से बेमेल है..
बताओ प्रेम करोगे या इश्क?
~priya ✍️