बढ़ते मानव चरण को
बढ़ते मानव- चरण को
लटक पेड़ के पतली डाल से
गिरगिट चला गया बहुत ऊंचा
पेड़ के नीचे भूतल पर आकर
मगरमच्छ ने अपना मुँह उठाकर पूछा ।
क्यों सखे? पतली डाल से लटककर
करतब ऐसा क्यों दिखला रहे हो ?
इतनी पतली डाली पे आकर
अपनी जान क्यों गंवा रहे हो ?
गिरगिट बोला- मुझे मत रोको
व्यर्थ टांग तुम अड़ा रहे हो ।
मेरी जान है, मैं जो कर दूँ
आँसू तुम क्यों बहा रहे हो?
अब जीकर क्या करना मुझको
जब मानव हमसे ज्यादा रंग बदल रहा है
छोड़ आचरण मानव धर्म का
पशुता में वह जकड रहा है
इसलिए सोचता हूँ कि आत्महत्या ही कर लूँ
मानव लोक को छोड़कर और कहीं मैं रह लूँ ।
गिरगिट की कातर वाणी सुन
मगरमच्छ दयार्द्र स्वर में बोला
तेरा ही यह हाल नहीं, प्रिय
मानव पहन रखा है पशु स्वभाव का चोला
तुम्हीं नहीं हम भी हैं मानव चपेट में आये
मेरा भी है हाल वही क्या हम तुम्हें बताएं ।
अब तो मनुष्य हमसे ज्यादा छल-कपट जाल बिछा रहा है
मगरमच्छ के आँसू से ज्यादा फरेबी धर्म वह निभा रहा है ।
मानव के छल- कपट के आगे
हम भी बेवश- बेकश हो जाते हैं
रहना होगा इसी माहौल में
क्यों सोचते हो? हम जाते हैं?
आदमी के दोहरे चरित्र ने
हम दोनों को चोट किया है
गिरगिट के भाँती रंग बदलना
और मगरमच्छ के आँसू बहाने का
बेरहमी से गला घोंट दिया है।
मेरा कहना मान सखे
प्रण प्राण- त्याग का त्याग सखे
अपना हक लेने के लिए लड़ना पड़ता है
आत्महत्या का ख्याल केवल कायर ही करता है।
अपना हक लेने मानव को कभी नहीं मैं दूँगा
मान रखने के लिए पशु का, जो भी
करना पड़े, बिना देर किए, करूँगा ।
दिखावटी आँसू बहाने का हक
जो केवल हमें मिला है, उसे जीते जी
मानव को कैसे छीनने दूंगा ?
तुम्हारी भी हक की इस लड़ाई को
बेजा कैसे जाने न दूँगा?
जितना साथ की होगी जरूरत
उतना साथ मैं दूँगा ।
तेरी जरूरत है मुझको
मेरी जरूरत तुझको
चलो हम दोनों मिलकर
रोकें पशुता की ओर
बढ़ते मानव-चरण को।