बढ़ती वय का प्रेम
बढ़ती वय के
इस सोपान पर
पड़ती है जब नजर
सुदूर अतीत में
तलाशती बेखबर
अपने पहले प्यार
की पहली नजर।
जिसका सामना
करने का साहस
नही कर पाया था
जबकि उसकी नजर में
मौन आमंत्रण स्पष्ट
और सहज था।
कुछ पारिवारिक
वर्जनाएं
कुछ सामाजिक
बाध्यताएं
मुझे मेरे अभीष्ट से
दूर करती गयी।
प्रत्योत्तर के अभाव में
वह मुझे मेरे राह पर
छोड़ निपट आगे बढ़ गयी
मेरे जीवन मे एक
रिक्तिका ऐसी छोड़ गयी
जो आजीवन अब
भरने से रही।
वह आज भी
यथावत रिक्त पड़ी है
आत्मभाव के अनुराग से
अनवरत सिक्त है।
उम्मीद का भी
अब अभाव हो गया था
तभी बहुत दिनों बाद
उसकी आभा को मैंने
गांव के सरोवर के
उस पार देखा था
बेशक उमर का असर था
मगर सुरमयी आभा
जस का तस था।
अपने बच्चे को झूले में
झूला रही थी
मेरी ओर कनखियों
से ताक रही थी
पुनः बिछुड़े प्यार ने
दिल पर दस्तक दिया
न चाहते हुए मुझे
मौन कर दिया।
पर बहुत दिनों बाद
आज सावन की
पहली बूंद
अच्छी लगी थी
दिल के तारों में अनायास
झनझनाहट शुरू
हो गयी थी
इस सुरमयी शाम में
उसे आलिंगन में
लेने की प्रतीक्षा थी
एक अलहदा सूकून की
चाह फिर से बढ़ गयी।
निर्मेष शायद
जिंदगी फिर से
जीना चाहती थी
अपने अधूरे स्वप्न
को पूरा करना
चाहती थी।
निर्मेष