बच्चों के पिता
रूठें हैं बच्चें आज उनको मनाने,
ढेर सारे खिलौने लेकर आया है पिता.
अच्छा तुम्हें और क्या चाहिए? बताओ ना?
बच्चों को मनाते हुए पुछ रहा है पिता.
बच्चों की कई एसी शरारतों को,
डांट फटकार कर फिर भुला देता है पिता.
हर वक्त बच्चों की खुशियों में ही,
अपनी खुशियाँ ढूँढता फिरता है पिता.
वक्त बेबक्त बच्चों को हिदायतें देते रहता
बच्चों की का़मायाबी चाहता है हर एक पिता.
लाख तक़लीफ़े ही क्यूँ ना हो फिर भी?
सीधे मुँह अपने बच्चों से कह नहीं पाता है पिता.
बिटीया तो अब सयानी हो गई
डोली में बिठा कैसे बिदा कर पाएगा पिता?
बच्चें पैरों पे खड़े हो खुशहाल ज़िदंगी हो,
यही चिंता और दुआएं करता है पिता.
कवि- डाॅ. किशन कारीगर
(©काॅपीराईट)
नोट:- काव्य प्रतियोगिता के लिए मौलिक एवं स्वरचित रचना