“बचे खुचे रिश्ते”
बचे खुचे रिश्ते”
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“बाक़ी सब शहर बसे
बचे खुचे गाँव में
बुढ़े की खाट बिछी
नीम की छांव में
बूढ़ी का चूल्हा जला
मुँडेर पे कौआ बोला
काँव काँव रे
गली गली सियार घूमे
चले अपना दाँव रे।
कैसे कोई आगे बढ़े
ज़ंजीर बंधी पाँव में।।
बाक़ी सब शहर बसे__!
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।भाग-२।
“बचे खुचे रिश्ते”
शहर में रुके
रिश्ते सब शहर बसे
जैसे कोई कुंभ सजे
वैसे भगदड़ मचे
सारे तितर-बितर हुए,
अपने अपने ठांव रे।
गीदड़,शेर सियार सभी;
चूहे सा दौड़ रहे।
पैसे अब गुरु हुए,
पीछे रह गये भाव रे।
कैसे मिलूँ ,समय नहीं ।
कहाँ मिलूँ ,दूर बहुत है ,
अपना अपना गांव रे।
चलो चलें आज नदी पर;
जब जाने को तैयार हुये;
डूब गई वो सामने हमारे;
बेपैंदी की नाव रे।
राजेश “ललित” शर्मा
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(१)”