बचपन
भागती हुयी जिन्दगी में आज फिर
बचपन है याद आया
पिता का वह स्नेह भरा स्पर्श
फिर कहाँ है मैनें पाया
माँ का आँचल और ममत्व याद कर
उस अनुभूति से दिल है हर्षाया।
खिलखिलाकर हंसने को आज भी है दिल चाहता
किन्तु जिम्मेदारियों ने है गंभीरता का मुखौटा पहनाया
अल्हड़पन की शरारते करने को बढ़े जब हम
परम्पराओं ने था मार्ग में आ हमको रुकवाया
काश इक दिन मिले जो ऐसा, बचपन में लौट जाऊ.
पुन: माँ का ममत्व और पिता का स्पर्श पाऊं
सखियों संग करू अठखेलियां
और बचपन की शरारतों में खो जाऊं
भूलकर अपने सब दायित्वों को
एक बार पुन: वही बचपन जी आऊं
पुन: अपना बचपन जी आऊं
डॉ. कामिनी खुराना (एम.एस., ऑब्स एंड गायनी)