बचपन
रूपमाला छंद
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बाल मन निर्मल बहुत है,और हैं मासूम।
रूठते पल में मनाते, खिलखिलाते झूम।
रूप है भगवान जैसा, है, हृदय अनमोल।
कर्ण में रस घोलते मुख, से निकलते बोल।
मुख दमकता स्वर्ण-सा है,लब्ध प्रभु का नूर।
रात दिन अठखेलियाँ ये,तो करे भरपूर।
अंग है कोमल बहुत ही,ज्यों खिला-सा फूल।
वो कभी रखता नहीं है, निज हृदय में धूल।
हठ बहुत करता मगर यह,माँगता है चाँद।
सोचता है कुछ नहीं तब, सिर्फ जाता फाँद।
नाव बारिश में चलाते, भींगते हैं खूब।
दौड़ते हैं भागते हैं, मस्तियों में डूब।
बाग में तितली पकड़ता,भागता उस संग।
पाँव नंगे दौड़ जाता,और करता तंग।
चाव से ऐसे चले ज्यों,जंग आया जीत।
झूमता गाता खुशी से,बन गया मनमीत।
उलझनों से दूर बचपन,जी रहा बेफिक्र ।
कर्म में तल्लीन रहते,पर न करते जिक्र।
सौम्य सुंदर-सा सजीला,छल रहित निष्पाप।
निज मृदुल मुस्कान से वह,हर लिया संताप।
-लक्ष्मी सिंह
नई दिल्ली