बचपन
बचपन की खुद ही एक जवानी थी,
हम खुद के तक़दीर का राजा, और ज़िन्दगी अपनी रानी थी ।
अब तो उमर का भी उमर हो चला है,
दिल की धड़कन भी मानो अब पराया हो चला है।
ज़िम्मेदारियों के तूफान में कब की बह गई ये जवानी है,
ना तो अब मोहल्ले में शोर होता है, ना ही बची वी बूढ़ी नानी है ।
अब ना तो किसी के खिड़की की कांच टूटती है,
ना ही किसी के मां बाप पर आंच आती है ।
अब ना तो गुल्ली डंडे होते हैं,
ना ही गेंद खरीदने को पैसे जमा करने के फंडे होते हैं ।
अब ना तो पिट्टो के पत्थर सजते हैं,
ना ही कित – कित के बक्से बनते हैं ।
अब तो बारिश की बूंदें भी, किसी बाढ़ से नहीं लगती है कम
वो बचपन ही था, जब कीचरों में भी लतपथ हुए,
अपनी कश्ती बहाया करते थे हम ।
अब तो बस बचपन के खेलों को याद कर के दिल थोड़ा सा खेल लेता है,
इस भागदौड़ वाली थकान कि चोट को, ये जिस्म अब झेल लेता है ।
बचपन के सपने को पूरा करने खातिर, जवानी का इंतजार था,
पर जवान हुए तो एहसास हुआ, बचपन जीना तो खुद में एक सपना है ।
ना कोई उम्मीद, ना किसी की चाह, बस आस-पास ऐर-गैर सब का सब अपना है ।
वो समय था, जब त्योहारों के मौसम में पंख लग जाया करते थे हमें,
वो जब होली आने पर, बाबूजी को, रंग और पिचकारी के लिए परेशान कर दिया करते थे,
जों कोई ना मिले, तो बाल्टी भर रंग को खुद पर ही उर्हेल लिया करते थे ।
सुबह होते ही दोस्तों की टोली संग रंगो के फव्वारे लिए हर घर का सैर किया करते थे ।
और बदले में हर घर से खीर पुए का सौगात लाया करते थे ।
दिवाली में मिठाइयों और नए कपड़ों के लिए घर को सर पर उठा लिया करते थे,
दिए और मोमबत्ती से ज्यादा तो, बस पटाखे जलाया करते थे ।
पर अब ना तो मिजाज़ रंगीन होता है,ना ही अंदर के पटाखे जलते हैं ।
अब तो बस ये सुबह गुलाबी होती है, और रातों को घर में अलाव जलते हैं ।
कुछ बड़े हुए तो, मोहल्ले कि दोस्ती भी बड़ी हो के स्कूल वाली दोस्ती बन गई,
जब हम स्कूल जाने के लिए रोए थे ।
जहां एक तरफ पुराना घोसला उजड़ता चला गया,
वहीं दूजी और मीरी नई यारों की महफ़िल सजती चली गई ।
तब हम स्कूल से जाने के लिए रोए थे ।।
फिर हमारी ज़िन्दगी में वो समय भी आया, जब हमें इश्क़ हुआ ।
उसकी एक मुस्कुराहट, हमारी ओर, मानो लगता था, नमाजों में मांगा दुआ, क़बूल हुआ ।
लड़की को पता हो ना हो, पर वो मेरे यारों की भाभी जरूर बन गई थी,
हां भले ही उसे कुछ खबर हो ना हो, पर वो मेरे जिस्म की रूह जरूर बन गई थी ।
फिर हम इतने बड़े हो गए, की बचपन फिर से जीने को तरसने लगे,
मां के गोद में सर रख कर सोने को फिर एक बार तड़पने लगे ।।
काश कि ये बचपन हमारा फिर से लौट आता,
जब फिर से हम सफर में स्कूटर के आगे खड़े हो कर, बाबूजी के कहने पर हॉर्न बजाया करते ।
मां के कहने पर कूकर की सीटी बंद किया करते ।
दोस्तों के कहने पर स्कूल से भाग लिया करते ।
मेहबूबा के कहने पर हाथों में हाथ डाले, घंटों बातें किया करते ।
टीचर जी के कहने पर पूरे कक्षा के कॉपी स्टाफ रूम तक लेे जाया करते
प्यार वाली डांट सुनने को कुछ जान बूझ कर तो कुछ नासमझी में गलती किया करते ।
हर रात को एक नए सवेरे की आस लिए गले लगाया करते ।
हर दिन में 100 बार जिया करते, हर दिन में 100 बार जिया करते ।।
– निखिल मिश्रा