बचपन
घर के छोटे छोटे कमरे महल जैसे लगते थे
माँ के सादे खाने हमें छप्पन भोग लगते थे
दादी का दुलार और नानी की कहानी थी
गुड़िया की शादी भी ,धूमधाम से रचते थे
कपड़े की गेंद और कागज़ की नाव होती थी
जेबें खाली थीं और खुद को नवाव समझते थे
कल की चिंता न आज की परवाह होती थी
गहरी नींद सोते ,पल वो तो बेफिक्र से होते थे
दुनियादारी की समझ और न होशियारी थी
हंस कर मिलने वाले सब अपने ही लगते थे