बचपन
नहीं मालूम
क्यों रखा उसका नाम चुल्लू
उसके सफेद रोएँ,लाल-नीली ऑंखें
और फुदकना
सबकुछ लगता है
अपने प्यारे बचपन जैसा
ये शहर की भाग-दौड़
और कहाँ बालू की दीवार बनाना
बाग से टिकोरे लाना और महुआ चुनना
कभी-कभी
चुपके से मटर की फलियाँ तोड़ना
और नंग-धड़ंग तालाब में नहाना
रेत के विशाल क्षेत्र में
स्वतंत्र विचरण करना
क्या सबकुछ वैसा नहीं
अपने प्यारे चुल्लू जैसा
मुझे याद है,
बालू में दो पैसे मिलना
और जतन से जेब में रखना
मुझे याद है,
छिछली नदी में डूबना
और घुच्ची खेलना
‘कनझिटटो’में कान दुखना
गुल्ली-डंडे का वह अनोखा खेल
और सिर पर रखकर डंडे ढोना
बाग से दौड़ाए जाना
और अगणित गालियां सुनना
सबकुछ तो वैसा ही है
अपने प्यारे चुल्लू जैसा।