बचपन
ये बचपन कितना मासूम होता है
जो माँ बाप के इर्द गिर्द ही घूमता है
जो कभी हस्ता , तो कभी बिना बात पर ही रोता है
पापा की आवाज़ से जागता और माँ की लोरी से सोता है
ये बचपन कितना मासूम होता है
अपनी नन्ही आँखों में ना जाने कितने सपने संजोता है
इन गुड्डे गुड़िया में ही अपना जीवन समेट लेता है
ये बचपन कितना मासूम होता है
उसे फ़िकर नहीं कल की वो आज में ही जीता है
उसे छल कपट का ज्ञान नहीं वो निश्छलता से रहता है
ये बचपन कितना मासूम होता है
यू ही नहीं भगवान का दूसरा रूप कहलाता है
वो पाप से दूर पुण्यों में अपना ध्यान लगाता है
ये बचपन इसलिए इतना मासूम होता है