बचपन वाली होली
याद आती है
आज वर्षो बाद
वो बचपन वाली होली
जब माँ निपती थी
आँगन को गोबर से
मिट्ठी के चूल्हे पे
छनते थे मालपुए
और सारे बच्चे घर के
इंतज़ार करते थे की कब उन्हें कुछ मिले
दादा की सफ़ेद धोती
हम गुलाबी कर देते थे
हम बच्चे सुबह सुबह ही
कूच कर जाते थे
जैसे कोई जंग पर जा रहे हो
गोबर, कीचड़ ,रंग गुलाल
कभी कोई हरा हो जाता
कभी किसी को कर देते लाल
याद आती है
आज वर्षो बाद
वो बचपन वाली होली
वक़्त ने कुछ ऐसे धोया रंग को
होली तो रही
पर रंगों वाली नहीं
टाइल्स लगे फर्श पर
होली का रंग मिलता ही नहीं
ना रंग होता है घर में
पकवानो से वो स्वाद आता ही नहीं
ज़िन्दगी में आगे बढ़ने की चाहत में
इतना उलझ गया हूँ की
जिन दोस्तों को रंगो में डुबोता था
उन्हें “हैप्पी होली” का सन्देश भी भेजा नहीं
आज कंप्यूटर स्क्रीन के
सामने बैठे–बैठे याद आ रही
वो बचपन वाली होली.