*बचपन की यारी*
लव कुश दो संतानें हूँ मैं,
अपने माँ-बाप का,
खेल-कूद कर बचपन बिता दी,
जीवन के अभिन्न अंग का
सच पूछो तो यारों,
बहुत दुख हुआ,
पहूँचकर जवानी की दहलिज पर.
संग छूटा जा रहा,बचपन की यारी का,
शब्द मेरा फूट पड़ा,संग बीती कहानी का,
य़ाद आ रहा आज, बाबू की पहरेदारी का,
माँ की मीठी प्यारी लोरी का,
आज महाप्रेम उसका, तुच्छ सा लगता है ,
कल के प्यारे झगड़े से,
दिल का दर्द है,आँसू में बदल जाता,
जब आँखें दूर होती है,उनकी मुलाकतों से.
य़ाद आता है वो क्षण,
जब खाना खाता था संग,
पीता था पानी,एक घूँट वो और एक घूँट हम,
आज एहसास होता है, भाई के जुदायी का गम,
काश , ये जवानी न आयी होती,
बचपन मेरी बीती न होती,
दोनों भाई होते संग,
बीतता हर सुबह-शाम एक रंग एक रंग.
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