-बचपन का मेला
मेले के जीवन से एकदम विपरित
बचपन में था मैं भोला – सयाना।
मेला सभी को सौन्दर्य से लुटता
कहते सब हुशयारी का जमाना।।
जब गांव-गली में मेले के आने से,
चकाचौंध खुब ओर चढ- बढी।
मैंने कहां माँ से मुझे जाना हैं तो,,
माँ की दिक्कते सर पे बढ-चढी।।
माँ से पैसे को बोला मेले के लिए,
क्योंकि मन जानेंको मेले में आतुर था।
चार अट्ठनी का मां ने इंतजाम किया,,
उनशे मन खुशियों से भरपूर था।।
बडभया के मेले में साथ जाके,
चार अट्ठनी को लेकर खुश रहा।
चार अट्ठनी से ज्यादा कुछ न आता,,
बस देख नजारों को लौट-पौट रहा।।
जब मेलें में लेने का मन हुआ,
जेब में आनें खुब समझ रहा।
जब खिलौने का भाव पुछा तो,,
चेहरे की खुशियों का रवि ग्रस्त रहा।।
भया ने हाथ पकडकर के मुझे,
झुलों पर झुलते लोग बतायें।
कलाकारियों के जादू दिखाकर,,
मेले में खुशियों के फुल खिलायें।।
जेब में फिर से उन अट्ठनियों को,
बहूतायत में ओर टटोल रहा।
क्युंकी मन ही मन सपनों में ,
पुरे मेले को खरीदने की सोच रहा।।
पता न था नादानी में मुझको की,
इन आनों में कुछ ज्यादा न आएगा।
मेलें में सामान के भाव पुछकर,,
खाली हाथ और इच्छा दफनाएगा।।
जब दुर से पानी पुरी को देखा तो,
खाने की इच्छा जाहिर हूई।
सोच रहा मन की इन अट्ठनियों से,,
पेट भरने की अच्छी भरपाई।।
जब भाव पुछा उसने कहां की,
दो अट्ठनियों में पांच पुरी आयेगी।
मन ही मन सोचा की इससे तो,,
पेट की भूख अधूरी रह जायेंगी।।
मेले में कुछ खाया – पिया नहीं,
बस मेले के सौन्दर्य से निहाल रहा।
और न खिलौने खरीदे नही झुलें में झुला,
चेहरे पर सौन्दर्य अंतरिय भाव रहा।।
बडे भया ने एक बात कहीं रणजीत,
अब तों लुट-खरीद का मेला होंता हैं।
इस भीड चकाचौंध में कुछ नहीं,,
केवल मेला तो खुशियों का होता हैं।।
रणजीत सिंह रणदेव चारण
मुण्डकोशियां