बचपन अपना अपना
खांची में गोबर के कुछ छोत लिए हम सो कर उठते थे।
फिसलन भरे रास्तों से ही तो हम अपने खेत पहुंचते थे।।
भोजन के खातिर केवल खेत और खेत की गुड़ाई थी।
मेढ़ बांधना, खेत चिखुराना और फसल की बुवाई थी।।
बण्डी जांघिया वस्त्र हमारा, पांव सदा नंगा रहता था।
गाय चराना, घास छीलना, फिर भी मैं चंगा रहता था।।
कंचे, चीयां, चिक्का, कबड्डी ही तो खेल हुआ करते थे।
छोटा बाबा बड़ा है नाती, रिश्ते भी बेमेल हुआ करते थे।।
होली दीवाली बड़े त्योहार थे, तो धूम मचाई जाती थी।
गोबर कीचड़ से होली, गुड़ से दिवाली मनाई जाती थी।।
नाग पंचमी कुश्ती लड़कर, आल्हा सुनकर ही मनाते थे।
शिवरात्रि में मेला, और दशहरे में रामलीला दिखाते थे।।
चलते चलते चलो बताएं, अपने स्कूल और पढ़ाई की।
तख्ती घोंटना, टाट बिछाना, वा सतीर्थों संग लड़ाई की।।
अक्षर ज्ञान और गिनती से, दिन शुरू हुआ करता था।
गुरु छड़ी और पहाड़े से, दिन का अंत हुआ करता था।।
चने की झाड़, गन्ना, बेर, मूंगफली ही तो मुखभंजन था।
टांग मारना, दौड़ लगाना, चिढ़ाना ही तो मनोरंजन था।।
लाड़, प्यार, धन, वैभव सब बस किस किस्सों में होती थी।
दुस्वारी संघर्ष गरीबी गांव के बचपन के हिस्सों में होती थी।
बहुत पुरानी नहीं बात यह, ये स्तिथि सन नब्बे से पहले की थी।
उन बच्चों ने सब बदला, अब ऐसी नहीं बात जो पहले सी थी।
जय हिंद