“बचपने वाला बचपन” ?
दुबका पड़ा है
घर का हर कोना
छुपम छुपाई में
कोई छुपता नहीं है
सूनी पड़ी हैं
मोहल्ले की गालियां
पकड़म पकड़ाई में कोई
पकड़ता नहीं है
सतोलिये के पत्थर भी
बिखरे पड़े है
सलीके से इनको
कोई रखता नहीं है
रंगीन टीवी भी
बेरंग है लगता
वो मोगली का चैनल
अब चलता नहीं है
खनकता नहीं है
गुल्लक भी कोई
जो “दस्सी” और “पंज्जी”
से अब भरता नहीं है
फीका फीका है
अब स्वाद जुबां का
वो गुड़िया का बाल
मुँह में घुलता नहीं है
बारिश का पानी
भी रुकता कहां है
नावों का कारवां
अब चलता नहीं है
सूने पड़े हैं
झूले और मेले
कोई जाने को इनमे
मचलता नहीं है
उदासी से झुकी है
पेड़ों की शाखें
बचपन अब इनपे
लटकता नहीं है :)
“इंदु रिंकी वर्मा” ©