बघेली मुक्तक और समसामयिक शायरी
आंधर बनें बटइया,अपनेन क बांटत हं,
सुधबन के मुंहु, कुकुरबे चाटत हं।
एंह दउर मं केहू क का कही बताब,
अपनन के हाथ, अपनेन काटत हं।
छोड़ दो कोशिशें किसी को जगाने की,
अब कहां फिक्र है किसी को ज़माने की।
आंधर बनें बटइया,अपनेन क बांटत हं,
सुधबन के मुंहु, कुकुरबे चाटत हं।
एंह दउर मं केहू क का कही बताब,
अपनन के हाथ, अपनेन काटत हं।
छोड़ दो कोशिशें किसी को जगाने की,
अब कहां फिक्र है किसी को ज़माने की।