बगावत की आग
फूंक न डाले सिस्टम को
जो आग मेरी ग़ज़ल में है
मानवता का हर क़ातिल
अब भी किसी महल में है…
(१)
पता नहीं इतनी-सी बात
समझ इन्हें कब आएगी
औरत की जगह मर्द के
पैरों में नहीं, बगल में है…
(२)
ऐसे ही नहीं इतनी सुर्ख़ी
आई इसकी पंखुड़ियों में
हमारे पूरे झील का ख़ून
आज इस एक कंवल में है…
(३)
मुहब्बत के कारोबार में
अब उतना फ़ायदा कहां
जितना ज़्यादा मुनाफा
नफ़रत की फ़सल में है…
(४)
पुरानी पीढ़ियों ने हमको
बुरी तरह मायूस किया
थोड़ी-बहुत उम्मीद बची
अब अगली नसल में है…
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Shekhar Chandra Mitra
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