बगरो बसंत है
सुमन प्रभात का खिला,
गगन धरा से जा मिला,
ज्योति किरण फुट पड़ी,
हिलती कमरिया गगरिया से बोलती –
जलभर…. जलभर…. मनभर…. मनभर….
नित्य प्रति भोर में
मुर्गा है बाँगता।
निशा से जैसे दिवस का
उपहार माँगता।
कली खिली फूल बनी
जन-जन से बोलती –
क्षणभर….क्षणभर….खुशियों से मन भर।
बगरो बसंत में है
चर्चा हिंडोल का
हर तरफ मिठास है
मिसरी – सी बोल का
झूमती है मस्त पवन
कण-कण में घोलती –
जन-मन में मधुरस…. कर भर….कर भर….