‘बंधन’
ये कैसा अदृष्ट बंधन है जिसमें डोर न छोर,
जाने कैसे बंधा है इसमें पागल सा मन मोर।
विषमता का भार नहीं द्वेष की कोई दीवार नहीं,
तीन रंग में रंगी चुनरिया लहरा रही चहुँ ओर।
ये कैसा अदृष्ट बंधन है जिसमें डोर न छोर,
जाने कैसे बंधा है इसमें पागल सा मन मोर।
विषमता का भार नहीं द्वेष की कोई दीवार नहीं,
तीन रंग में रंगी चुनरिया लहरा रही चहुँ ओर।