बंद दरवाज़ा
“चले जाओ, मुझे कुछ भी नहीं कहना है।” दरवाज़ा खोलने वाली स्त्री ने आगंतुकों की भीड़ की ओर देखकर कहा। धड़ाम की ज़ोरदार आवाज़ के साथ द्वार पुनः बंद हो गया।
“भगवान के लिए मुझे मेरे हाल पर छोड़ दो … चले जाओ तुम लोग।” उस स्त्री की सिसकती हुई आवाज़ आगंतुकों को बंद द्वारवाज़े के पीछे से भी साफ़ सुनाई दी।
“देखिये मैडम, दरवाज़ा खोलिए। हम आपका भला करने के लिए ही आये है। हम सभी मीडिया और पत्र-पत्रिकाओं से जुड़े लोग हैं। आप पर हुए बलात्कार की खबर को सार्वजनिक करके हम उस भेड़िये को बेनकाब कर देंगे जिसने तुम्हारे जैसी न जाने कितनी ही मासूम लड़कियों को ज़िंदगी ख़राब की है।” आगंतुकों की भीड़ में सबसे आगे खड़े व्यक्ति ने कहा।
“अच्छी तरह जानती हूँ तुम लोगों को। ऐसी घटनाओं को मसाला बनाकर खूब नमक-मिर्च लगाकर परोसते हो, एक चटपटी खबर की तरह। अपने चैनल को इस तरह नाम और प्रचार देते हो और खूब विज्ञापन बटोरते हो।”
“देखिये मैडम, आप गलत सोच रही हैं। हम व्यावसायिकता की दूकान चलाने वाले लोग नहीं हैं। समाज के प्रति हमारी कुछ नैतिक ज़िम्मेदारियाँ भी हैं। सच को सार्वजनिक करना ही हमारा मूल उद्देश्य है।”
“हाँ जानती हूँ, कितने नैतिकतावादी हो तुम लोग! सच की आड़ में कितना झूठ परोसते हो तुम लोग! तुम समाज का क्या हित करोगे? तुमने लोगों की संवेदनाओं का व्यवसाय करना सीख लिया है। दफ़ा हो जाओ सबके सब, दरवाज़ा नहीं खुलेगा।”
बंद दरवाज़े के पीछे से ही उस स्त्री को मीडिया वालों के सीढियाँ उतरने की आवाज़े सुनाई दीं। बंद पीछे से ही पड़ोसियों को देर रात तक उस स्त्री की सिसकियाँ सुनाई दीं।