बंदिशें
“जब व्यक्ति की भावनाएं मर जाय तो समाज स्वत: मृत-प्राय: हो जाता है।”
चीजों को बदलने दीजिए
नफरतों से ही सही,
दिल के आईने में
बसने दीजिए।
कल की सुबह का इंतजार
आज कर लें;
पर, आज की सुबह को तो
ढ़लने दीजिए।
मुकम्मल जिंदगी का हर एहसास
समेट लें हम;
परिंदो को भी, उड़ने की
वजह तो दीजिए।
जिंदगी को कुछ इस तरह
दो-फाड़ कीजिए;
एक में ‘तुम’-
एक में ‘मैं’, जिंदा रहूँ
यह एहसास होने दीजिए।
तुमने क्या लिख दिया
अजनबी रास्ते हो गए;
इस भटकन को भी
कुछ नाम तो दीजिए।
तुम्हारे सहर का फलसफा
अब रास नहीं आता;
सुखे दरख्तों को भी,
अब गुलजार होने दीजिए।
बुझ रही,
जिंदगी की आस अब तो;
बिखरी जिंदगी को,
अब तो सहेजने दीजिए।
जीवन के इस अंत का,
प्रतिकार करूँ तो कैसे
पल पल डुबती साँसों को;
थामने का-
अधिकार तो दीजिए।