बंटी
बंटी की हालत कुछ ज्यादा ही खराब हो चुकी थी। आर्थिक तंगी ने इतना जकड़ लिया था कि दवा दारू को दूर, दो जून के राशन पानी के फांके पड़ जाते यदि वह महिला सहारा ना बनती जो न जाने कब से उसका साया बनकर रह रही थी। उस महिला को बंटी भी न जान पाई थी कि आखिर वह है कौन? आज ही बंटी के बेटे संयोग का खत आया था। लिखा- ‘ इसके पहले कि मैं घर आऊं; अपने इष्ट मित्रों के साथ पर्यटन को जाना है। इसलिए उसे खर्चे की आवश्यकता अनुसार पैसे अवश्य भेज दें।’
हर माह एक मोटी रकम की आवश्यकता पड़ती इसलिए कहीं से किसी ना किसी प्रकार व्यवस्था करनी पड़ती। बंटी के बेटे संजोग ने उच्च शिक्षा ग्रहण कर आआखिरी वर्ष भी पूरा कर लिया था। बंटी बीमार थी, इसके बाद भी उसके पास जो जेवरात थे उन्हें भी भेजकर संयोग की आवश्यकता की पूर्ति कर दिया करती थी। संयोग जब कभी घर आने की बात करता तो बंटी किसी न किसी प्रकार बहाना बनाकर मना कर देती। कह देती- ‘वही रह कर पढ़ाई करें। आने जाने में समय नष्ट ना करें।’ शायद अपने आप से दूर रखना ही बेहतर समझती थी बंटी। वह जानती थी कि संयोग उससे एक लंबे अरसे से ना मिल पाया था। इसलिए शायद संयोग को मिलने की उत्कंठा और बलवती प्रतीत हो रही थी। फिर संयोग के शिवाय उसका अपना इस दुनिया में था ही कौन। हां वह महिला जरूर ऐसे दिखाई देती जैसे उसका अपना ही साया था और तो और आज तक भी उसे ना तो जान पाई और ना ही उसकी शक्ल सूरत को देख पाई। बंटी की हालत दिन से बिगड़ी थी तब से वही महिला आती। खाना खिलाकर बिना कुछ और कहे ना जाने कहां चली जाती। फिर शाम और सवेरे का सिलसिला जाने कब से चला आ रहा था। आज तो डॉक्टर को भी लेकर आई थी और डॉक्टर साहब के जाने के बाद दवा पिलाने लगी तो बंटी से रहा न गया। वह पूंछने लगी- “मैंने आज तक आप से कुछ नहीं पूँछा न ही आपकी मंशा के अनुसार आपको जानने की आवश्यकता समझी। पर आज मैं जानना चाहती हूं। तुम हो कौन? मेरा तुम्हारा रिश्ता है क्या? क्यों इतनी चिंतित रहती हो?” बंटी कुछ चेहरे की ओर टकटकी लगाए देख रही थी जो घुंघट की ओट में छुपा था। पर उसकी ओर से कोई उत्तर ना मिला। बंटी ने उसकी हथेली अपनी हथेली में दबा ली। किसी के आने की आहट पाकर वह महिला खड़ी हुई। मुड़कर देखा सुंदर से युवक के साथ एक खूबसूरत सी महिला अंदर प्रवेश कर रही थी। वह तो कुछ समझी नहीं पर बंटी की दृष्टि उस युवक पर ठहर गई। इसके पहले की बन्टी कुछ कह पाती, उस युवक ने पूछ लिया- “क्या बंटी जी यही रहती है?” वह युवक बंटी को पहचान न पाया था। पर बंटी अपने नाम का सम्बोधन सुनते ही आवाज से पहचान गई- ‘संयोग…बुद बुदाई बन्टी । मां… मेरी मां… नहीं है क्या? संयोग ने पूछा तो उस महिला का अंतरतम थरथरा गया। उसका ममता से भरा ह्रदय उछलने लगा। बंटी करवट लिए पूर्ववत पड़ी थी। जैसे उसने कुछ सुना ही न था। “मां… मां मैं आ गया।” पुनः पुकारा संयोग ने। आपकी तपस्या पूरी हुई मां। भावुकतावश ज्यों ही बंटी ने करवट बदली तो सहयोग बंटी की सूरत देखकर हतप्रभ था। दो कदम पीछे हट गया। लंबी लंबी उगी दाढ़ी मर्दाना चेहरा देखकर हैरत हुई संयोग को।
अब बंटी है मेरी मां है नहीं नहीं यह कैसे हो सकता है कौन हैं आप, मेरी मां कौन है। मैं हूं बेटा मैं ही हूं तुम्हारी मां भर्राई आवाज में बन्टी ने कहा । यदि आप मेरी मां है तो बाप कौन है? कौन है आपका पति? संयोग के सवालों ने निरुत्तर कर दिया। बंटी की आंखों से मोतियों की तरह आँशू टूट टूट कर गिरने लगे । अनभिज्ञ थी इन प्रश्नों से फिर भी साहस करती बन्टी बोली- मैं तुम्हारी मां न होती तो ममता कैसे होती ? एक बेटे को मां से यह पूछना क्या उचित है कि पति कौन है क्या इतना काफी नहीं कि पालन पोषण लाड़ दुलार करने वाली भी मां होती है। इन हाथों से तेरा मैला धोया है। खाने मे तू लघु शंका कर देता था न तो उस थाली का खाना मां के सिवाय और कौन खा सकती। मल मूत्र में सारी सारी राते और कौन करवटें बदल सकती। मां के लिए इतने सबूत देना क्या पर्याप्त नहीं है? “झूठी दलीलों में मत उलझाइए। मेरे प्रश्नों के ये उत्तर नहीं है। कहीं मुझे कानून का सहारा न लेना पड़े।” ” इतना भारी अपराध हो गया मुझसे। रुंधे गले से बंटी बोली।” यदि मेरी तपस्या का यही फल है तो उसे भी भोगने को तैयार हूं। यह सच है कि मैं औरत नहीं पर मां जैसा हृदय नहीं क्या? क्यों ममता भर दी विधाता ने? बंटी बोल न पा रही थी। उसने सपने में भी नहीं सोचा था कि एक पल ऐसा भी आएगा। सच सच है बेटे। मैं तुम्हारी मां नहीं। मैं तुम्हारी कोई नहीं। डूबती सी आवाज से बंटी ने कहा तभी कुछ और लोग आकर द्वार पर ही ठिठक जाते हैं। बंटी का सहारा बनी औरत ने जब उन लोगों को द्वार पर देखा तो उसे लगा कि वह कोठी घूमने लगी हो। पहाड़ पर पहाड़ टूटने लगे हो। उसके तन बदन में भूचाल सा आ गया था। बंटी जी मालिक मकान खाली चाहते हैं। आप के वादे के हिसाब से 4 माह अधिक हो गए अब और प्रतीक्षा नहीं की जा सकती। आप घबराइए नहीं मालिक। अब रह कर भी क्या करना है। आज ही खाली हुआ जा रहा रहा है। रहा 4 माह का किराया तो हम इस जन्म में नहीं शायद अगले जन्म के लिए उधार रहा मालिक। बन्टी बोली तो उस महिला को लगा कि उसका कलेजा ही निकल कर बाहर आ जायेगा। मकान मालिक ने संयोग से मुखातिब होते हुए पूँछा आप लोग ? साहब ये अपने आप को मेरी मां बता रहीं। बंटी की ओर इशारा किया संयोग ने- ” क्या ये मां हो सकती? मैं तो ना जाने किस कुलटा के पाप की निशानी हूँ।” इसके पहले संयोग कुछ और कहता कि वह महिला संयोग की ओर पलटी और भरपूर ताकत से पागलों की तरह तड़ाक-तड़ाक संयोग के गाल पर तमाचे जड़ने लगी। बोली- ” मैं बहुत देर से सुन सुन कर सब्र करती रही कि शायद अब अपनी जुबान पर लगाम कसेगा। पर नहीं जो जी मे आया बकता गया। नमक हराम एहसान फ़रामोश …..।” ” नहीं नहीं मेरे बेटे को मत मारो। ” बन्टी थरथराती हुई बोली- “पूँजी है यह मेरी।” देखा- मां का हृदय वह महिला बोली। यदि इनका हृदय मां का सा न होता तो तुम भी इस दुनिया मे न होता। खा जाता कोई जानवर। नोच खाते चील कौए। तू गंदी नाली के कीड़े से बदतर है। तुम तो इन्सान कहने के काबिल नहीं हो। और ये तेरा गरूर तेरा जिस्म जो आज है, बस इस देवी मां की बदौलत है। संयोग ठगा सा खड़ा था। एक शब्द कुछ और बोलने की जरूरत न रह गई थी। बंटी भी हैरत से कभी संयोग और कभी उस महिला की ओर देख रही थी। यह अप्रत्याशित घटना उसकी समझ में भी नहीं आ रही थी। संयोग के साथ आई वह युवती यह सब देख तो रही थी पर समझ ही नहीं पा रही थी। सब के सब देख रहे थे। बंगला खाली कराने वाले भी। दीदी …..।” बंटी की ओर मुखातिब होते हुए वह महिला कहने लगी। दीदी यह जिसे आप संयोग के नाम से पुकार रही हैं वह गंदे नाले का वह भ्रष्ट कीड़ा है जिसे आपने मन्दिर की झाडियों में रोता-बिलखत देख अपने कलेजे का टुकड़ा समझकर छाती से चिपका लिया था। और इस पर अपनी सारी जिंदगी न्योछावर कर दी। अगर मैं ऐसा जानती कि एक धोखेबाज का खून उससे भी बड़ा धोखेबाज निकलेगा तो इसे लातों से कुचलकर कुत्तों को खाने के लिए छोड़ देती पर नहीं। मैं दुबकी तब तक देखती रही जब तक इसे आश्रय नहीं मिला।” उस महिला की आवाज गले में अटक कर ही रह गई। ” तो… तो क्या तुम… तुम वही हो आश्चर्य से बंटी ने पूछा।” ” हां मैं.. मैं वो हूं कहते उस औरत ने अपने चेहरे पर से घूंघट हटाया। तो उस आगन्तुक जो मकान खाली कराने के लिए आया था के पांव तले से मानो जमीन सरकने लगी हो। वह पसीने से सराबोर होने लगा। गला शुष्क पड़ने लगा।
“तुम कौशल्या।” उस आदमी की जुबान से निकल गया। उसे पहचानते देर न लगी। पर मानो कौशल्या ने कुछ सुना ही ना था। वह बकती रही। दिन रात का सुखचैन तेरे ऊपर निछावर करती रही। नाच गा-गाकर तेरी पढ़ाई का बोझ ढोती रही। पाओं में रिसते जख्मों की परवाह किए बगैर तेरी आवश्यकताओं के लिए अपना खून बहाती रही। अपनी जिंदगी की सारी पूंजी ही नहीं। सर छुपाने की यह छत भी तेरी ही खुशी के लिए बेच दी कि तू पढ़ लिख कर एक अच्छा और नेक इंसान बन सके। दीदी आप महान हैं। आप की ममता और चाहत पर गर्व है मुझे। दीदी मैं आपके पैरों की धूल के बराबर भी नहीं। आप की ममता अथाह है दीदी। जन्म जन्मांतर आपके ऋण से उऋण नहीं हो सकती। तभी कौशल्या पर बेहोशी छाने लगी। गला शुष्क पड़ता गया। वह निहाल होकर बंटी के पैरों में गिर गई। जिस रोज से बंटी की तबियत बिगड़ी तबसे कौशल्या को पेट भर भोजन भी नहीं मिला था। पूर- पूरे दिन बंटी की देखरेख में गुजार देती। जो कुछ थोड़ा बहुत था घर में उसी से गुजर-बसर कर रही थी। बंटी को खिलाने के बाद जो कुछ बचता बस वही उसके पेट में जाता। न बंटी और न ही कौशल्या मजदूरी वजदूरी कर पाई थी। इसलिए खाने लाले पड़ने लगे थे। पर इसका एहसास बंटी को कभी न होने दिया। नहीं कौशल्या नहीं तड़पकर बंटी बोली- इन पैरों में अभी भी इतनी दम है कि अपनी ही नहीं तेरी जिंदगी भी चला सकती हूं। “मुझे मुझे माफ कर दो मां।” सहयोग की आवाज कप-कपाने लगी। “तुझे तुझे माफ कर दूँ।” बंटी दूबती सी आवाज में बोली- “अरे माफी ही मांगनी है तो इस देवी से मांग शायद माफ कर दे। मां हो कर भी ममता के लिए तड़पती फिरती रही। समाज ने ही नहीं माता-पिता ने भी अस्वीकार कर दुत्कार दिया। धोखेबाज ने ऐसा धोखा दिया कि मुंह छिपाने दर-दर की ठोकरें खाती बेबस भटकती फिरती रही। इसे क्या पता था कि सिर्फ प्रेम और भरोसे की ऐसी क्रूर सजा भुगतनी पड़ेगी। औरत के हिस्से में सिवाय बदनामी के और क्या मिला है। एक चलती फिरती लाश सी। फिरती रही दुनिया में मुंह छिपाये। अपनी झूठी शान की बदनामी का ढिंढोरा पिटती रही यह समाज। माता-पिता परिवार समाज ने ऊंच-नीच जात- बिरादरी कुप्रथा की दीवारों को और मजबूती दी। अपनी ही औलाद का तिरस्कार करके। प्रेम किया उसने और उसके बदले धोखा। क्या प्रेम करना दोष हैं तो उसकी सजा केवल औरत को ही क्यों भुगतनी पड़ती है। सदियों से भुगततीआई नारी को पुरुष प्रधान यह संसार कभी निजात भी देगा बंटी जी। साहस जुटाते हुए वह भद्र पुरुष भावुकता में सर झुकाए कहने लगा। यह कौशल्या यह बेटा और यह बंगला भी सिर्फ और सिर्फ आपकी ही धरोहर है। लालच दे रहे मुझे मैं गुनाहगार हूं। क्षमा कर दीजिये मुझे। प्रायश्चित का एक मौका दे दीजिये मुझे। भर्राई आवाज में वह पुरुष बोला- कैसे सफाई दूं कि मैं भी दर-बदर कौशल्या को ढूंढता तड़पता मारा मारा फिरता रहा। पर कहीं पता ना चला। मैं तो जीवन से हताश हो चुका था। सारी उम्मीदें टूट चुकी थी। आज आज मिली हो तो ऐसे हालात में। मुझे ना तो दुनिया और ना ही समाज परिवार का डर था। मैंने जो कुछ किया था सोच समझ कर किया था। मैंने प्रेम धोखा देने के लिए ना तो किया था और ना कभी करूंगा। उसकी आंखों से निरंतर अश्रुधार बह रही थी। बंटी को समझते देर न लगी। वह बंटी के सामने अपराधी सा सर झुकाए खड़ा था। कौशल्या को लगा कि वह जमीन पर गिरने वाली है। दीदी कौशल्या ने चीखा तो हड़बड़ा कर बन्टी कौशल्या को अपनी बाहों में भरती बोली- नहीं कौशल्या नहीं। तुम्हें कुछ नहीं हो सकता। बहुत दुख झेले हैं तुमने। मैं हूं ना कौशल्या। तभी बंटी को जोर की खाँसी आई। खांसी के साथ ही मुंह से खून का लोथड़ा आ गया। बंटी कौशल्या को अपनी बाहों में समेटे थी। कौशल्या अचेत थी। बंटी की बांहे कौशल्या के इर्द गिर्द कसती गई।
बन्टी भी कौशल्या के साथ ही जब फर्श पर गिरती दिखाई दी तो संयोग ने संभालने बंटी को अपनी बाहों में भर लिया। संयोग का बदन थरथरा उठा।
बेहोश बन्टी से पागलों की तरह लिपटता उसके तन बदन को चूमता बिलख उठा। मा मा मेरी प्यारी मां कुछ तो बोलिए मां, इतनी बड़ी सजा न दो मां। एक बार सिर्फ एक बार बोलो सिर्फ एक बार। मां बेटों को माफ कर देती है। इस गुनाहगार को भी माफ कर दो मां। एक बार बेटा कह दो मां। बिलख बिलख कर संयोग बन्टी से लिपट जाता है।
और बन्टी… हमेशा हमेशा के लिए चिर निद्रा में लीन। कौशल्या बेहोश।
-धनीराम रजक