बंटवारा
“अम्मांजी जी नहीं रहीं”- जब एक हफ्ता पहले मुझे अपनी सास के निधन का यह अप्रिय समाचार सुनाया गया तो सहसा मेरे कानों को यकीन ही नहीं हुआ। मन बेहद उद्विग्न और बेचैन हो गया था, परंतु सच को झुठलाने का मेरा कोई भी प्रयास सफल नहीं हो सका। उनके अंतिम दर्शन नहीं कर पाने का अफसोस शायद जीवन भर रहेगा। ऐसी बात नहीं है कि उनसे मेरी बहुत आत्मीयता या निकटता थी, लेकिन फिर भी बुजुर्ग का साया अपने ऊपर से उठ जाना अपने आप में सदमा देने वाला अनुभव होता है। ख़ासकर जब बाबूजी और ‘इनके’ यानी अपने पति के बारे में सोचती हूं, तो मन बहुत व्याकुल हो जाता है। ये पिता से ज्यादा अपनी मां के ही करीब थे। हालांकि, यह बात जगजाहिर थी कि इनकी मां इनसे ज्यादा अपने बड़े बेटे को मानती थीं, परंतु इन्होंने अपनी संत प्रवृत्ति के करण अपने अंदर किसी तरह की दुर्भावना को पनपने नहीं दिया। इनकी यही भलमनसाहत कभी-कभी मुझे नागवार गुजरती है। बाबूजी से तो खैर मेरी कई बार बहस हो जाया करती थी, अम्मा जी के साथ कभी कोई अशोभनीय बात नहीं हुई। कारण, बाबूजी काफी मुखर और अम्मांजी अंतर्मुखी थीं।
यूं तो ये अपनी भावनाओं को छिपाने की कला में काफी माहिर हैं, परंतु इस बार इस कला में इन्हें भी सफलता हाथ नहीं लगी। इनके चेहरे की लाचारगी को देखकर मेरा मन रोने-रोने को हो जाता। इनको मानसिक सांत्वना देने के लिए मैं अंतिम संस्कार के समय भी साथ नहीं थी, यह बात मुझे रह-रह कर कचोटती है। लेकिन मेरी मजबूरी भी ऐसी थी कि उसे नज़रअंदाज़ नहीं किया जा सकता। सुरभि की बोर्ड परीक्षा चल रही थी, जिसे बीच में छोड़ने की गुंजाइश ही नहीं थी, इसलिए इन्हें अकेले ही जाना पड़ा था। क्रिया-कर्म के बाद ये घर लौट आए थे क्योंकि लगातार द्वादशा कर्म तक रुकने लायक छुट्टी नहीं थी। इनके बड़े भैया और भाभी वहीं रूके हुए थे।
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दो दिन पहले ही सुरभि की परीक्षा समाप्त हुई है और इस बार द्वादशा कर्म में शामिल होने मैं भी ससुराल जा रही हूं। रास्ते भर हम तीनों चुप-चुप ही रहे। अन्य अवसर होता तो सुरभि रेलगाड़ी के सफर में काफी उत्साहित रहती, लेकिन अपनी दादी को खोने का दुख उसे अंदर ही अंदर खाए जा रहा था और वह अपने स्वभाव के विपरीत शांत बैठी थी। संवाद-हीनता की स्थिति में मेरे अंदर विचारों और भावनाओं का सैलाब उमड़ रहा था। बार-बार कल्पना करती कि पता नहीं गांव के घर पर क्या स्थिति होगी?
मेरी दोनों ननदें और भाभी पहले से ही वहां मौजूद थीं और दो दिन पहले कानपुर वाली और धनबाद वाली बुआ भी आ गई थीं। नजदीकी रिश्तेदारों में सबसे बाद में पहुंचने वाली मैं ही थी। मैं अंदर से तो भावुक हूं परंतु अपने आंसुओं पर काफी नियंत्रण कर लेती हूं। यही कारण है कि कई बार लोग मुझे संवेदनहीन भी समझने लगते हैं। मेरे आंसू भी बहते हैं लेकिन अकेले में। अपनी कमजोरी दूसरों के सामने जाहिर करना मेरे स्वभाव में है ही नहीं। इसलिए कई बार मुझे कठोर, निर्दयी, हृदयहीन आदि संबोधनों से भी विभूषित किया जाता रहा है। मैं मन ही मन सोच रही थी कि इस बार वहां पहुंचते ही मुझे अपने आंसुओं पर लगाए हुए बांध को सप्रयास तोड़ना होगा, वरना फिर लोग मुझे संशय के कटघरे में खड़ा कर देंगे। यही सब सोचते-विचारते सफर कब खत्म हो गया पता ही नहीं चला। दिन के दस बज रहे थे, जब हमारी ट्रेन स्टेशन पर रुकी। बाबूजी ने ड्राइवर एवं गाड़ी भेज रखी थी इसलिए बिना किसी परेशानी के हम साढ़े दस बजे तक घर पहुंच गए थे।
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” छोटी मामी आ गई”- नन्हे पीयूष ने मुझे देखते ही दौड़ कर अंदर सभी लोगों को सूचना दी। तुरंत ही अंदर से रंजू दीदी (बड़ी ननद) आईं और मुझे साथ ले गयीं। बरामदे में ही बाकी सभी लोगों से भेंट हो गई। मैंने दीदी, भाभी एवं बुआ सभी के पांव छुए और वहीं खाट पर बैठ गई। वहां का माहौल कहीं से भी मातम का नहीं लग रहा था। भाभी नौकरों एवं महरियों को दिशा-निर्देश दे रही थीं कि कैसे और क्या-क्या तैयारियां करनी हैं। ननदें और बुआ गपशप करने में मशगूल थीं।
अपनी उपस्थिति का भान कराने के उद्देश्य से मैंने पूछा – “बाबूजी कहां है?”
” अम्मां के कमरे में”- रेखा दी (छोटी ननंद) ने बताया और मुझे उस कमरे की ओर ले जाने को तत्पर हो गयीं।
बाबूजी आंखें बंद किए आराम कुर्सी पर बैठे थे – सोए थे या जगे – दूर से पता नहीं चल पाया, परंतु हमारी आहट सुनते ही उन्होंने आंखें खोल दीं और “आ गई छोटी दुल्हन”- कहते हुए मुझे सामने वाली कुर्सी पर बैठने का इशारा किया।
मैंने और सुरभि ने उनके पांव छुए तो सुरभि के सर पर हाथ फेरते हुए उन्होंने बड़े वात्सल्य से पूछा – “परीक्षा कैसी हुई, बेटा?”
“अच्छी हुई, दादा जी”- कहते हुए सुरभि की आवाज भर्रा गई और वह उनके पास बैठ गई।
बाबूजी के चेहरे पर अवसाद की रेखाएं स्पष्ट थीं। उनका स्वभाव भी काफी बदला हुआ लग रहा था। कहां तो गुस्सैल और डांटता-फटकारता हुआ उनका रौद्र रूप और कहां यह शांत, निश्चल, ममत्व भरा रूप! एक क्षण को विश्वास ही नहीं हुआ कि यह वही बाबूजी हैं, जिन्होंने कभी किसी से भी प्यार से बात नहीं की थीं। अम्मांजी की मृत्यु ने उन्हें पूरी तरह झकझोर दिया था और शायद उन्हें जीवन की क्षणभंगुरता का एहसास हो गया था।
हम थोड़ी देर वहीं चुपचाप बैठे रहे और वातावरण की बोझिलता को महसूस करते रहे। मेरा मन काफी भारी हो चला था लेकिन न तो आंसू निकले न ही बाबूजी के लिए सांत्वना का कोई शब्द। इतनी देर में गाड़ी से सामान वगैरह निकलवा कर और व्यवस्थित कर ये भी वहीं आ गए। इनके आते ही मैं वहां से निकल गई ताकि पिता-पुत्र बिना किसी झिझक के अपनी भावनाओं को प्रकट कर सकें और साझा दुख बांट सकें।
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बरामदे में मजलिस अभी भी जमी हुई थी और खाट के बीचों-बीच एक खुली अटैची रखी हुई थी जिनमें कुछ जेवरात के डब्बे पड़े थे।
भाभी ने मुझे देखते ही बुला लिया और कहने लगीं – “सुनंदा!…. तू भी इनमें से अपनी पसंद का एक जेवर ले ले। अम्मां जी के छः सेट में से हम तीनों (दोनों ननदें एवं भाभी) ने एक-एक ले लिया है। तू भी ले ले और जो दो बचेंगे वह दोनों बुआ ले लेंगीं।”
मुझे बड़ा अजीब लगा। यहां अम्मां जी के चले जाने का दुख किसी को नहीं, सब उनके जेवरों के बंटवारे में लगे हैं।
मैंने कहा – “मुझे इन सब में दिलचस्पी नहीं, आप जो ठीक समझें।”
“हां-हां तुझे क्यों दिलचस्पी होने लगी, तू तो खुद कमाती है न, जितने चाहे बनवा लेगी। और हम भी कौन से जेवरों के लिए मरे जा रहे हैं….. वह तो भाभी की निशानी समझ कर ले रहे हैं” – कानपुर वाली बुआ ने कटाक्ष करते हुए कहा।
“अच्छा बुआ जी, छोड़िए भी….. हम अपनी समझ से ही यह वाला सेट सुनंदा को दे देते हैं” – कहते हुए भाभी ने जेवर का एक डब्बा उठाकर मेरी तरफ बढ़ा दिया।
मैंने अनमने भाव से ले तो लिया मगर खोल कर भी नहीं देखा।
तभी कानपुर वाली बुआ ने मेरे हाथ से डब्बा ले लिया और खोलकर बोली – “यह तो थोड़ा भारी वाला सेट है और है भी पुराने डिजाइन का। अब सुनंदा प्रोफेसरानी ठहरी, ऐसा थोड़े ही पहनेगी…. उसके लिए यह ठीक रहेगा”…. और उन्होंने मुझे एक दूसरा डब्बा पकड़ा दिया। मैंने उसे भी खोल कर नहीं देखा।
बुआ ने खुद पहले वाला डब्बा रखते हुए कहा – “मैं यह ले लेती हूं, रूबी (उनकी बेटी) के ब्याह में चला दूंगी। भारी गहना लेकर जाएगी रूबी तो ससुराल में रोब पड़ेगा।”
अब जो एकमात्र डब्बा बचा था उसे धनबाद वाली बुआ ने रख लिया।
अब बारी आई अम्मां जी के कंगन एवं चूड़ियों की। कुल पांच जोड़ी कंगन थे जिनमें चार जोड़ी थोड़े हल्के थे एवं एक भारी था। इसके अलावा दो पतली चूड़ियां भी थी। भाभी ने इनका भी हिसाब लगाया। चार जोड़ियों में से एक-एक रंजू दी, रेखा दी, के लिए और एक-एक मेरे लिए तथा स्वयं अपने लिए निकाल लिया। फिर दो भारी कंगनों में से एक-एक दोनों बुआ को दे दिया।
बच गई दो चूड़ियां – तो जब तक वे सोचतीं कि इनका बंटवारा कैसे किया जाए – कानपुर वाली बुआ ने तपाक से अपनी कलाइयों की तरफ इशारा करके कहा – “बड़ी दुलहिन, मेरी ये चूड़ियां उस वक्त थोड़ी हल्की बन गई थी। मैं भाभी की इन चूड़ियों को मिलाकर थोड़ी भारी बनवा लूंगी। वैसे भी मुझे कौन सी कांच की चूड़ियों के साथ पहननी है। बस दो सोने की चूड़ियां ही तो डाल सकती हूं……. थोड़ी वजनदार रहें तो ही अच्छा है।”
मैं अवाक् बुआ की ओर देखने लगी। इंसान इतना भौतिकवादी कैसे हो सकता है? फूफा जी के देहावसान का अभी एक साल भी नहीं हुआ था फिर भी कितनी बेबाकी से वे यह सब बोल गयीं। उनका प्रस्ताव सुनकर दीदी एवं भाभी की बोलती भी बंद हो गई।
माहौल की बोझिलता को कम करने के ख्याल से धनबाद वाली बुआ ने कहा – ” हां-हां, ठीक तो है, ये चूड़ियां दीदी ही रख ले तो अच्छा। भाभी ने भी सहमति में सिर हिला दिया।
“तुम सब यह किस जोड़-तोड़ में लगे हो? इतना दिन चढ़ गया, खिलाने-पिलाने की तैयारी नहीं होगी क्या?”- छोटे फूफा जी की कड़कती आवाज ने महिला-मंडली की गतिविधियों पर अचानक विराम लगा दिया।
भाभी जल्दी-जल्दी खाट पर बिखरे अटैची के सामान को समेटने लगीं। सभी औरतें अपने-अपने हिस्से में आई अम्मांजी की सौगात समेटते हुए तितर-बितर हो गयीं। मेरे हृदय पर मानो सौ मन का बोझ लद गया और किंकर्तव्यविमूढ़ सी मैं भी उठ कर चल दी। मेरे हाथों में भी जेवर का डब्बा था जो मुझे अपराध भावना से ग्रसित कर रहा था। अगर नहीं लेती तो घमंडी करार दी जाती और ले लेती हूं तो….. ?
“कोई बात नहीं इन गहनों को सुरभि की शादी में दे दूंगी, उसकी दादी की तरफ से आशीर्वाद समझ कर” – यह सोचकर मैंने अपने आप को अपराध भावना से मुक्त करने की कोशिश की।
सफर की थकान और यहां की गहमागहमी मुझ पर हावी होने लगी थी। मेरे सर में दर्द उठ गया, इसलिए थोड़ी देर के लिए मैं सोने चली गई।
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खाना-पीना हो चुकने के बाद भाभी ने पुनः सभी महिलाओं को अम्मांजी के कमरे में एकत्रित किया। उनकी मंशा अम्मांजी के साड़ियों का हिसाब-किताब लगाने की थी। अम्मांजी थी शौकीन मिजाज। भले ही गांव में रहती थीं, मगर उनके पास साड़ियों का खूबसूरत संग्रह हुआ करता था। रेखा दीदी मुझे भी बुलाने आईं तो मैंने विनम्रता से मना करना चाहा लेकिन उनके जोर देने पर मुझे भी मजबूरन जाना ही पड़ा।
भाभी ने बड़ी कुशलता से उनकी छः बनारसी साड़ियों में से एक-एक सभी को पकड़ा दीं।
” मैं इन साड़ियों का क्या करूंगी?”- अनायास ही मेरे मुंह से निकल गया।
” क्यों यह तो पुराने जमाने की महंगी साड़ी है इसमें असली चांदी की ज़री लगी हुई है। बनारसी साड़ी की दुकान में इसकी खूब अच्छी कीमत मिल जाएगी” – रेखा दीदी ने तत्परता से कहा।
“अब मेरे ये दिन आ गए क्या कि अम्मांजी की साड़ियां बेचकर पैसे बनाऊं?”- मैंने मन ही मन सोचा, मगर कहीं मेरी बात का बतंगड़ न बन जाए इसलिए प्रगट में इतना ही कहा – “दीदी! मुझे इन सब कामों का शऊर नहीं है। यह सब आपके ही वश का है। ऐसा कीजिए यह आप ही रख लीजिए, मेरे पास तो यूं ही पड़ी रह जाएगी।”
पता नहीं दीदी को मेरी बात अच्छी लगी या बुरी? लेकिन “ठीक है, जैसा कहो”- यह कहते हुए उन्होंने वह साड़ी अपने पास रख ली।
मैंने कनखियों से देखा कानपुर वाली बुआ उस साड़ी को ललचाई निगाहों से देख रही थीं। मुझसे आंखें मिलते ही थोड़ी झेंप सी गयीं।
मैं सुबह से हो रहे इस बंटवारे के क्रियाकलाप से ऊब सी गई थी। यह सब क्या तमाशा चल रहा है? यह नहीं कि घड़ी दो घड़ी बैठ कर सब आपस में अम्मांजी की अच्छी बातों की चर्चा करें, उनके नेक कर्मों को याद करें….. बस यहां तो जैसे लूट मची हुई है…… इसमें कौन कितना लंबा हाथ मार सकता है, सभी की फिराक में है।
मर्द लोग गांव के सभी लोगों की भोज-भात की तैयारी में लगे थे। खिलाने पिलाने के लिए रसोईए एवं हलवाई बाहर से ही बुलाए गए थे, इसलिए घर की महिलाओं के पास रसोई से संबंधित कोई काम रह नहीं गया था। सबों के चेहरे पर एक राहत का भाव था…. अपनी-अपनी गृहस्थी के जंजाल से मुक्ति की राहत का भाव….. जैसे सब पिकनिक मनाने या किसी समारोह में सम्मिलित होने आईं हों।
मेरी मानसिक स्थिति से अनभिज्ञ बाकी औरतें उलट-पुलट कर अम्मांजी की बाकी साड़ियां देखने, समझने में तल्लीन थीं……. समझने…… इसलिए कि सभी छू कर, टटोल कर, अंदाजा लगा रही थीं कि कौन सी कितनी नई या पुरानी है?…. और कौन सी कितनी महंगी होगी?….खैर! निष्पक्ष बंटवारे में निपुण मानी जाने वाली भाभी ने फिर उसी कुशलता से हम छः औरतों के बीच साड़ियां करीब-करीब बराबर-बराबर बांट दीं। मजे की बात तो यह थी कि रेखा दी एवं रंजू दी ने दो-तीन साड़ियों की आपस में अदला-बदली भी कर लीं।
मेरे सामने फिर असमंजस की स्थिति। अपने हिस्से आई साड़ियों में से मैंने एक सबसे साधारण सी साड़ी रख ली।
” मैं तो बस यह एक साड़ी रखती हूं, अम्मांजी की निशानी के तौर पर। भाभी !… बाकी की साड़ियां आप इनमें ही बांट दें” – मैंने डरते-डरते दोनों दीदी एवं बुआ की ओर इशारा करते हुए कहा।
इससे पहले कि भाभी इस पर कोई प्रतिक्रिया व्यक्त करतीं, कानपुर वाली बुआ ने पुनः कटाक्ष करते हुए कहा – “हां-हां सुनंदा ठीक ही कहती है…… बड़े लोगों की बड़ी बातें…… पुरानी साड़ियां यह क्यों पहनने लगी….”
“बुआ, आप तो हर बात का गलत अर्थ ले लेती हैं” – मेरी ओर जैसे भाभी ने ही सफाई दी – “अब इसकी इच्छा नहीं है तो न सही…. आप लोग ही और रख लें” – और अंततः भाभी ने मेरे हिस्से की साड़ियां भी उनमें बांट दी।
मैंने चैन की सांस ली , चलो बंटवारा प्रकरण का पटाक्षेप तो हुआ।
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आज सारा कार्यक्रम समाप्त हो गया। दोनों बुआ आज शाम की ट्रेन से वापस लौट रही हैं। बाकी सभी लोगों को कल लौटना है।
“बाबूजी अब कैसे और कहां रहेंगे?”- इस ज्वलंत विषय पर चर्चा के लिए सभी लोग बरामदे में एकत्रित हुए।
“बाबूजी कहां रहना चाहते हैं? यह तो उन्हीं से पूछ लेना चाहिए” – भैया ने कहा।
“मगर यह भी तो देखना होगा कि कौन उनकी जिम्मेदारी ले सकने की स्थिति में है” – भाभी ने तुरंत बात काटते हुए कहा।
“मां के बिना बाबूजी को संभालना हमारे बस में नहीं” – रेखा दी ने जल्दी से पल्ला झाड़ते हुए कहा।
“वैसे भी बेटे के रहते बेटियां थोड़े ही मां-बाप को संभालती हैं…. लोग क्या कहेंगे?”- रंजू दीदी ने रेखा दी की बात पर समर्थन का मुहर लगाया।
“मेरा तो घर बहुत ही छोटा सा है…. बाबूजी को वहां काफी दिक्कत होती है…. सुबह में ड्राइंग रूम और रात में बेडरूम…. किसी तरह तो हम ही एडजस्ट हो पाते हैं….और मुंबई में बड़ा मकान लेना मजाक थोड़े ही न है। उस पर बाबूजी के साथ-साथ उनका सेवक और ड्राइवर भी तो रहेगा ही” – भाभी ने बड़ी सफाई से अपनी असमर्थता जाहिर की।
“ठीक है, बाबू जी को मैं ही ले जाऊंगा” – इन्होंने ऐलान किया।
“हां-हां तुम्हारे यहां कोई ज्यादा परेशानी नहीं है। घर भी बड़ा है….. सुनंदा स्वयं नौकरी करती है इसलिए नौकरों-महरियों का भी इंतजाम हमेशा रहता है” – भाभी ने इस प्रस्ताव को सही साबित करने के उद्देश्य से कहा।
इस नाजुक विषय पर मैंने चुप रहना ही मुनासिब समझा। वैसे भी ये कभी अपनी जिम्मेदारियों से मुंह नहीं मोड़ते हैं, न ही मेरा स्वभाव ऐसा है। थोड़ी बहुत दिक्कत आएगी भी तो क्या….. अपनों के लिए इतनी नाप-तौल थोड़े ही की जाती है।
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हम ट्रेन से लौट रहे थे। बाबूजी हमारे साथ ही थे। उनके चेहरे पर भी संतोष का भाव झलक रहा था।
“दादाजी, मैं आपको अपना कंप्यूटर दिखाऊंगी” – सुरभि चहक रही थी।
गांव जाते समय उसके ह्रदय में कुछ खोने का दुख था परंतु लौटते समय उसकी आंखों में कुछ पाने की चमक थी। मैं भी खुश थी बाबूजी के टूटे हुए रूप को देखकर मेरा मन काफी कचोट रहा था। इसी बहाने उनकी सेवा का पुण्य मुझे मिलेगा। मुझे लगा मैं भाग्यशाली हूं। बाकी लोगों को क्या पता कि अम्मांजी की जीवन भर की जमा-पूंजी के बंटवारे में उनकी सबसे कीमती चीज मुझे ही मिली थी।
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(यह मेरी मौलिक एवं स्वरचित रचना है।)
©पल्लवी मिश्रा ‘शिखा’, दिल्ली।