बंजारा
हम प्रकृति के प्रांगण में
खुशियां मनाएं हर आंगन में
मांग मांग कर खाए हम
क्या मजा है मांगन में,
दिन ढले या रात होय
मेरी हाल पूछे न कोय,
प्लेटफार्म हो या चौराहा
कहीं आशियाना बनाते हैं
देख ऐसी जिंदगी लोग
अंखियां चुराते हैं,
शोर शराबा खूब करे हम
नासमझी मेरी कहानी है,
हम स्वच्छंद विचारों के पोषक है
प्रकृति करती हमारी निगरानी है,
अन्याय किसी से करते नही
हम किसी से डरते नही
तापस जन क्या तपते हैं
जो तपन है अंदर में,
नदीयों में क्या लहरे हैं
जो लहरे है समुंदर में,
भाव नही अभाव में जीते हैं
हम तो बस चलते हैं , रुकते नही चलते हैं……..