फैल गयी घाटा सावनी
अधर चुप मुस्कुरा उठे।
बरस गयी भरी–भरी चाँदनी।
दिया है
देह ने देह को
नेह ने नेह को
रँग ने रँग को
रूप ने रूप को
गंध ने गंध को
आकुल निमंत्रण
और
थिरक उठी चंचल घटा सावनी।
नैन में फैलकर
अँकुर गया सुख सुहाग
स्निग्ध मन से पुरूष ने
इंगित किया मानवी को
पुष्प के ओठ छू
उतर गयी है बतास
सिमट गया मेरे–तेरे अँजुलि में
वासंती वसंत से भरा यह मन
फिसल गया कटि से
उठ गया उरोज तक
प्यास से भरे अधर
बिम्ब गुंथ गये सभी
फिजां के आसपास
फैल गयी प्रेयसि तू
मेरे अस्तित्व पर
बन के पूजा के अगर।
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अरूण प्रसाद‚पडोली