फिर से आँखें हुई सजल शायद
ग़ज़ल…
फिर से आँखें हुई सजल शायद
बन रही है कोई ग़ज़ल शायद….
देखकर भी नहीं देखा मुझको
ऐसा लगता गए बदल शायद…
ढूँढते फिर रहे वो महफिल में
खूबसूरत सी इक शकल शायद…
बेवफा उनको कह नहीं सकते
जिनपे दिल था गया मचल शायद..
आज हलधर जो परेशां इतने
ज़िन्दगी उनकी है फसल शायद..
दोष दिखता नहीं जिन्हें खुद में
मर गई उनकी है अकल शायद…
चाहते बनना मुकद्दर सबका
दे रहे इससे ही दखल शायद…
झाँककर अपने गिरेबां देखो
रूप दिख जायेगा असल शायद..
छिन रहा सबका है सकूं ‘राही’
पी रहे खुलके सब गरल शायद…
डाॅ. राजेन्द्र सिंह ‘राही’
(बस्ती उ. प्र.)