फिर वैसा मधुमास न आया….
फिर वैसा मधुमास न आया…..
कितने बसंत आए जीवन में,
पर वैसा उल्लास न आया।
साथ तुम्हारे जैसा जिया था,
फिर वैसा मधुमास न आया।
आज पुरानी अलमारी से, निकला अचानक चित्र तुम्हारा।
कितनी मीठी यादों का, खुल गया प्रिये ! गुमनाम पिटारा।
याद आए सब वे गुजरे लम्हे, हाथ में जब था हाथ तुम्हारा।
मन में अब भी तुम्हीं बसे हो, एक पल भी न तुम्हें बिसारा।
सूनी है तब से दिल की नगरी,
मीत न कोई फिर इसमें आया।
दुस्तर प्रस्तर-सा हृद-गढ़ मेरा,
लाख जतन कर भेद न पाया।
फिर वैसा मधुमास न आया….
रह गयी ‘अधूरी कहानी’ हमारी, जिसकी न कोई भरपाई।
चिर विदा की उस बेला में, दी कसम जो तुमने, मैंने निभाई।
भाव मधुर पा तुमसे, हुआ पाषाण-हृदय भी शब्द -पुजारी,
दे भावों को रंग नेह के, मन-तूली से तुम्हारी छवि बनाई।
छायी है दिग्दिगंत हरियाली,
पर मेरे हिस्से पतझर आया।
संतोष यही बस दिल को मेरे,
वादा किया जो सदा निभाया।
फिर वैसा मधुमास न आया….
आज भी रह-रह आँखें तुम्हारी, करतीं मुझसे यही सवाल।
‘फर्ज़ निभाए हैं न तुमने, बन कर सदा अपनों की ढाल’ ?
देखो कभी तो आकर तुम भी, कैसे मैंने सब फर्ज़ निभाए,
पर एक तुम्हारे न होने से, विभव सब पाकर भी कंगाल।
आँखों में तुम्हारी भोली सूरत,
मन में तुम्हारा अक्स समाया।
इधर-उधर हर तरफ तो देखा,
पर पास तुम्हें न अपने पाया।
फिर वैसा मधुमास न आया….
-डॉ. सीमा अग्रवाल
मुरादाबाद ( उ.प्र.)
“विहंगिनी” से