फिर यूँ हुआ कि साथ समंदर का छोङ कर।
फिर यूँ हुआ कि साथ समंदर का छोङ कर।
होटों पे मैंने रख लिया बादल निचोङ कर।
क्या हो गया क़ुसूर ख़ता मुझ से क्या हुई।
तुम जा रहे हो मुझ से जो रुख़ अपना मोङ कर।
ऐसा भी एक वाक़िआ आया ज़वाद में।
मेरा ज़मीर रख दिया जिस ने झिंझोड़ कर।
जो तुझ पे था यक़ीन मुझे जान ए ज़िन्दगी।
तोङा है तू ने उस को मिरे दिल को तोङ कर।
ख़ुश-रंग ख़्वाब तू ने दिखाए थे क्यों मुझे।
रिश्ता ग़मों से जाना था जब मेरा जोङ कर।
नग़्मे मुहब्बतों के थे जिन की ज़बान पर।
गुलशन को परिन्दे गए कब के छोङ कर।
बख़्शा है जो ख़ुदा ने ‘क़मर’ उस पे कर गुज़र।
बेहतर तो है यही कि किसी की न होङ कर।
जावेद क़मर फ़िरोज़ाबादी