फिर भी क्यूँ इल्ज़ाम आया शाम पर
अब वो हंसता ही नहीं इनआम पर
और रोता भी नहीं इल्ज़ाम पर
बिक गया ईमान बिकता है ज़मीर
बोलियाँ लगती रहीं बस नाम पर
वो भी है तैयार बिकने के लिए
सिर्फ़ झगड़ा है कि क्या हो दाम पर
वो दिया तूफ़ान से लड़ता रहा
फ़ालतू में जो रखा था बाम पर
सुब्ह ने दीपक बुझाए थे मगर
फिर भी क्यूँ इल्ज़ाम आया शाम पर
आपकी मर्ज़ी से था आग़ाज़ भी
चौंकते हो क्यूँ मगर अंजाम पर
ज़िन्दगी अपनी लुटा दी ग़म नहीं
मस्त आँखों के तुम्हारे जाम पर
जीत हासिल हो गई है आज फिर
खेलकर बाज़ी उसी गुमनाम पर
रोज़ ही आराम करते आप हो
क्यूँ नहीं ‘आनन्द’ जाते काम पर
– डॉ आनन्द किशोर