फिर तेरी याद आई , ए रफी !
याद आती है जब उसकी ,
ज़हन में फरिश्ते की शक्ल दिखती है ।
आवाज जब पड़ती है कानों में ,
दिल के तारों में झंकार बज उठती है ।
आज की नफरत भरी दुनिया में ,
जैसे सच्ची मुहब्बत की कमी लगती है ।
उसी तरह आवाज़ों के शोरगुल में ,
उसकी प्यार भरी रसभरी मधुर स्वर की कमी लगती है ।
वो सखा भी ,वो हमराज भी
वो भक्त भी ,वही मुर्शीद भी ।
धार्मिक एकता की वो सुंदर ,मजबूत कढ़ी लगती है ।
वतन परस्ती और इंसानियत की भी ,
जो बेमिसाल मिसाल यह शख्सियत लगती है ।
तुम कहां हो रफी !! कब वापस आओगे?
हमें तुम्हारी बहुत जरूरत लगती है ।
आ रहा है तुम्हारे जन्मदिन का सौवां साल ,
अगर थोड़ा ग़म ,थोड़ी खुशी भी है ,
खुशी तो थोड़ी है मगर ग़म जायदा है ।
तेरे साथ खुशियों को साझा न कर सकने की जो मजबूरी महसूस होती है ।
और क्या कहें तुमसे ! यह हम जाने या हमारा खुदा ,
हमें कितनी शिद्दत से तुम्हारी कमी ,
अपनी जिंदगी में खलती है ।